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(७६) जो न फिरे, तो मुज बुद्धिमें पडजावे कार तो॥ ॥जो० ॥१९३॥ अती दुखे धन पेदा करूं, हाथे बायो जावे सब सार तो ॥ किम कर्म ये श्राडा फिरे, इण नवे दुःख न दियो कीने धार तो॥ चोरी में समज्यो नहीं, जाणी नहीं कियो कूट उचार तो ॥ संतोष धर्यों परणीपरे, वांछी नहीं स्वपने पर नार तो ॥ जो० ॥ १९४ ॥ राजकाजमें कर्म बंदे, तेहनो पण किनो परिहार तो ॥ ज्ञानी जाणे परनव तणी, ते केवावे मुजथी नल गार तो ॥ दुःखसे सरीर निर्बल हुयो, मेहनत क. रनेको नही पुरुषाकार तो ॥ म्हारो पेट नरसकू नहीं, तो किम संतोषु परवार तो ॥ जो० ॥ ॥ १९५॥ दुःख सहन होवे नहीं, जीव्यांथी काइ निकले नहीं सार तो ॥ मर्याथी पापो कटे, इम
१ फरक.
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