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(७२) तो ॥ पश्चाताप व्याप्यो अती, अहो २ म्हारा कर्मका दाग तो ॥ जो० ॥ १८२ ॥ मेनत सहू निष्फल हुइ, हाथे आयो गयो धन इण जाग तो ॥ किस्यो अडयोथो न्हाया बिना, एसोही क्योंनी गयो ग्राम माग तो ॥ जबर अंतराय में दीवी, जिम चाहूं तिम दुःख पावे आग तो ॥ जीवामें नफो नहीं, ये दुःखकी न सहवावे छाग तो॥ ॥ जो० ॥ १८३॥ तिणही बड तले भावीया, प गडीनी फांसी दीवी छे टांग तो ॥ घाल गले लटकण लग्या, इतरे तिहां तस आयुबल नाग तो ॥ सिद्ध पुरुष श्राइ नीकल्यो, मरतो नर जोइ दो डयो ऊडाग तो ॥ अरर किस्यो करे मानवी, फां सी तेहनी तोडी न्हाखी तडांग तो ॥ ॥जो०॥१८४ ॥ क्यों मरता क्या तुज हुवा, राय सुणायो बीत्यो विरतंत तो ॥ सिद्ध कहे मरणा