________________
[ 2 ]
श्रेयश्च प्रेमश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः । श्रेयो हि धीरोऽभिप्रयसो वृणीतो ज्ञेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ॥ कठोपनिषेदद्वितीयवल्लीश्लोक ||२|| अर्थ - अरोचक है परन्तु कल्याणका मार्ग है, और रोचक है परन्तु अकल्याणका मार्ग है, यह दोनों मनुष्योंको प्राप्त होते हैं, किन्तु बुद्धिमान दोनोंके स्वरूपको समझ कर कष्टसाध्य कल्याणके मार्गको ग्रहण करता है और मूर्ख लोग सहल परन्तु अकल्याणके मार्गको ग्रहण करते हैं, जैसा मार्ग ग्रहण करते हैं वैसा फल प्राप्त करते हैं । सवैया - जो कहा सा मत्रीभावले कठिन लगा तो क्षमा ही कीजे । पथ दर्शाना है काम हमारा हित तुम्हारा विचारके लीजे ॥ कटुक औषधि रोग हरे अरु मिष्ठ ही विष दिये तन छीजें । सुखेच्छु बोल "अमोल" ये मानत सूक्ष्मतिको बोध न दीजै ॥ इति श्री
परमपूज्य श्रीकहानजी ऋषीजी महाराजकी सम्प्रदाय के बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी महाराज
"
प्रणीत " सद्धर्म-बोध
नामक ग्रन्थ
समाप्तः
A