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[११ ] मनुष्यको देना योग्य नहीं। है सुखमय वृक्ष तो अधर्मी पुरुषकी उपमा कहाँ ?
तब ज्ञानी बोले- 'मनुष्यरूपेण धूलिश्च पूजा' अर्थात्-अधर्मी पुरुष धूलका ढेर जैसा है।
तव विद्वान् बोलाकारयामि शिशक्रीडा, पंखाना शंकरे मिव । मतो जनो निरज पर्वो लेग्वक्षिप्त फलं प्रदं ॥ ५ ॥
धूलके ढेरसे बच्चे खेलते हैं, उनका मनोरंजन होता है । घर आदि बनानेमें मट्टी काम आती है, होली पर्वके दिन बडे २ लोग धूल सरपर डालते हैं तथा पत्रादि लिखकर ऊपरसे धूल डालते हैं और उसको मंगल मानते हैं । ऐसे उत्तम पदार्थ की उपमा अधर्मी मनुष्यको कैसे दी जा सकती है?
तब ज्ञानी बोले- 'मनुष्यरूपेण भवंति श्वानः' अर्थात्-अधर्मी मनुष्य कुत्तोंके समान है ।
इसपर विद्वान् बोलास्मामिभक्तः सुचैतन्यः, स्वल्पनिद्रः सदोद्यमी । अल्पसन्तोषवान् शरः, तत्तुल्यश्च नरः कथं ॥६॥ कुत्ता स्वामीका अत्यंत भक्त है, बहुत थोडी