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द्वितीयः सर्गः
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जहां त्रसकाय के जीवों की तो बात ही क्या, स्थावर काय के जीवों को भी अभयदान प्राप्त था, वहां उन अज्ञानियों के द्वारा वे त्रस काय के जीव भी देव-धर्म के नाम से मौत के घाट उतारे जाने लगे। क्या इस आशय से ही ये शलभ अपनी मृत्यु को निकट समझ कर इस दीपशिखा में झपापात ले रहे हैं ?' ८०. श्लथव्रतास्ते जिनदर्शनस्य, प्रभावनारक्षणदम्भडिम्बः ।
आज्ञाविरुद्धर्बहुमन्त्रयन्त्रैर्जजम्भिरे भाविनिपातकृभिः ।।
यति वर्ग व्रतों में शिथिल हो गया। उसने भगवान के दर्शन, प्रभावना और दया के दम्भ से भगवान् की आज्ञा के विरुद्ध भावी पतन के कारणभूत मंत्र-यंत्रों के द्वारा अपने आपको चमकाना शुरू कर दिया। ८१. देवाय हिंसा गुरवेऽपि हिंसा, धर्माय हिंसा प्रथिता समन्तात् । ततश्च गार्हस्थ्यवधावरोधे, को वा परित्राणकरस्तदानीम् ॥
उस समय देव, गुरु और धर्म के नाम पर चारों ओर हिंसा ही हिंसा फैल रही थी। तो फिर गार्हस्थ्य जीवन में होने वाली हिंसा के अवरोध की तो बात ही क्या ! उस समय जीवों को त्राण देने वाला ही कौन था? ८२. सङ्घ समादाय च तीर्थयात्राकृते प्रचेलुर्मनिनामभाजः ।
वर्षर्तुरागानिगमान्तराले, जेतुं निदाघ' परिपन्थि भूपम् ॥ १. श्लोक ७४ से ७९ : १. गायन्गंधर्व-नृत्यत्पणरमणि-रणदवेणु-गुंजनमृदंग
खत्पुष्पस्र गुद्यन्मृगमदलसदुल्लोच-चञ्चज्जनौधे । देवद्रव्योपभोगध्रुवमठपतिताशातनाभ्यस्त्रसन्तः, सन्तः सद्भक्तियोग्ये न खलु जिनगृहेऽहन्मतज्ञा वसंति ।। २. जिनगृहर्जनबिम्बजिनपूजनजिनयात्रादिविधिकृतं,
दानतपोव्रतादिगुरुभक्तिश्रुतपठनादि चादृतम् । स्यादिह कुमतकुगुरुकुग्राहकुबोधकुदेशनांशतः,
स्फुटमनभिमतकारि वरभोजनमिव विषलवनिवेशकः ।। ३. आक्रष्टुं मुग्धमीनान् बडिशपिशितवत् बिम्बमादर्श्य जैन,
तन्नाम्ना रम्यरूपानपवरकमठान् स्वेष्ट सिद्धय विधाप्य । यात्रास्नात्राद्युपायैः नमसितक-निशाजागरादिच्छलैश्च, श्रद्धालु म जैनः छलित इव शठः वंच्यते हा ! जनोऽयम् ॥
(श्री जिनवल्लभसूरीकृतसंघपट्टक, श्लोक ७, २०, २१) २. निदाघः -ग्रीष्म ऋतु (निदाघस्तप ऊष्मकः- अभि० २।७१) ३. परिपन्थी--शत्रु (दुह त् परेः पन्थकपन्थिनी द्विट् --अभि० ३।३९३)