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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् श्रेष्ठ संयम को ग्रहण करने से स्वामीजी स्वयं देदीप्यमान हो गए। उस समय के हर्ष का वर्णन करना हर्षित मन वाले बृहस्पति के लिए भी वचनातीत था। स्वामीजी द्वारा सन्त भी वैसे ही सुशोभित होने लगे जैसे आकाश में विभास्वर रोहिणी के तारे ।
५९. अद्यानन्दमयं दिनं समुदितं ह्यद्यैव भाग्योदयो,
ह्यचैवोत्फलितः क्षयोपशमतः कल्याणकल्पद्रमः। अद्यैवाभ्युदयो भवार्णवभयान्निस्तीर्णवन्तो वयं, सन्तस्ते सकला मुहुर्मुहुरहो संलापवन्तो मिथः।
___ नई दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् समस्त सन्त बार-बार परस्पर में हर्षोल्लास व्यक्त करते हुए कहने लगे-अहो ! आज ही आनन्द का सूर्य उदित हुआ है, आज ही भाग्य का उदय हुआ है, आज ही क्षयोपशम का सत्कल्याणमय कल्पवृक्ष फलित हुआ है, आज ही अभ्युदय हुआ है और आज ही इस भवार्णव के भय से हम पार हुए हैं।
६०. मनसि वचसि काये योगयोगावतारो,
वहति वहति नित्यं सत्यशीलप्रवाहः । प्रतिपदपुरुषार्थश्चित्रचारित्रवृत्तिः लसति लसति तेषां साधुमुद्राप्रसत्तिः ॥
अब मुनि भिक्षु नये संगठन के प्रमुख बन गये । उनमें महान योगी की भांति मानसिक, वाचिक और कायिक स्थिरता थी । वे सदा सत्य और शील का वहन करते रहे और पग-पग पर पुरुषार्थ से चारित्र को प्रदीप्त करते रहे । उनकी साधु-मुद्रा अत्यन्त प्रसन्न और प्रशस्त थी। श्रीनाभेयजिनेन्द्रकारमकरोद् धर्मप्रतिष्ठा पुनर्
यः सत्याग्रहणाग्रही सहनयैराचार्य भिक्षुर्महान् ।। तत्सिद्धान्तरतेन चारुरचिते श्रीनत्थमल्लषिणा,
___ काव्ये श्रीमुनिभैक्षवेऽत्र दशमः सर्गोऽभवत् सुन्दरः । श्रीनत्थमल्लषिणा विरचिते श्रीभिक्षुमहाकाव्ये भिक्षोः त्रयोदशमुनिभिः साध रघुसम्प्रदायात् पृथग्भवन, केलवाग्रामे नवदीक्षाग्रहणमित्येतत्
प्रतिपादको दशमः सर्गः समाप्तोऽयं प्रथमखण्डः