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दशमः सर्गः
३२१ ५५. द्वीपो'र्वी वसु कौमुदीप्रियतमे संवत्सरे वैक्रमे,
आषाढे शुचि'पूर्णिमोत्तमदिने शुद्धातिशुद्धाशयः । आदायानुमति तदा भगवतां साक्ष्या च सिद्धप्रभोः, प्रत्याख्याय समस्तपापपटलं दीक्षां ललौ मङ्गलाम् ।
अतः विक्रम सम्वत् १८१७ में आषाढ शुक्ला पूर्णिमा को स्वामीजी ने अत्यन्त निर्मल भावों से, भगवान की आज्ञा एवं सिद्ध भगवान की साक्षी से, समस्त सावद्य योगों का त्याग कर मङ्गलमय भागवती नूतन दीक्षा ग्रहण की।
५६. आस्तां श्रीस्थिरपालजीर्मुनिफतेचन्द्रश्च वृद्धौ तत
स्तस्मात्तौ नवसंयमेपि च तथा संरक्षितौ स्वामिना । एतत्तद्विशदत्वनिर्मममुखौदार्यादिसंसूचकं, नो चेत् स स्वयमेव तत्र भवितुं शक्यः समस्ताद् बृहत् ॥
जिस समय स्वामीजी स्थानकवासी सम्प्रदाय में थे उस समय मुनिश्री स्थिरपालजी एवं फतेहचन्दजी--ये दो सन्त दीक्षा-पर्याय में बडे थे। इसलिए नई दीक्षा के समय में भी उनको ही बडा रखा। यह स्वामीजी की विशद नीति, निर्ममत्व एवं औदार्यादिक का परिचायक था । अन्यथा स्वामीजी स्वयं ही सबसे बडे हो सकते थे।
५७. टोकर्जीहरनाथजीर्मुनिवरौ श्रीभारिमालोपि च,
सार्द्ध संयममुज्ज्वलं ललुरमी चाऽऽजन्मसंस्थायिनः । दुःखे चाथ सुखे समानमनसः पूर्णात्मविश्वासिनो, माणिक्यत्रयसन्निभाः सहृदयाश्चैते त्रयोपि क्षितौ ॥
दुःख-सुख में समान मन वाले, पूर्ण आत्मविश्वास रखने वाले तथा सहृदय मुनिश्री टोकरजी, हरनाथजी एवं श्री भारीमालजी-ये तीनों मुनि तीन रत्न के समान थे तथा ये स्वामीजी के साथ ही दीक्षित हुए एवं आजन्म साथ में ही रहे।
५८. सद्यः संयमसारभारवहनाद् योऽभूत् स्वयं भासुरो,
हर्षो हर्षितमानसामरगुरोर्वाचां विचारोवंगः । श्रीमभिक्षुमुनीश्वरैः शुशुभिरे सर्वेपि वाचंयमा,
आकाशेन समाश्रिता भृतविभा वा रोहिणीतारकाः॥ १. शुचि:-आषाढ मास (आषाढः शुचिः स्याद्-अभि० २।६८) २. वा-इवार्थे ।