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11. वप्ताssलोक्य तपोवशान्मुकुलितं वक्त्रं तदीयं ततो, नीत्वा तं समुपागमन् मुकुलयन् व्यानञ्ज भावान्निजान् । त्वत्तोऽसावतिरञ्जितो हि भवता सङ्गृह्यतां सादरमहा लघु कार्य प्रणयतः संरक्ष्यतां दीक्ष्यताम् ॥
तब कृष्णोजी तपस्या से अपने पुत्र का मुख मुरझाया हुआ देख, उसको साथ लेकर स्वामीजी के पास आकर बोले- 'मुनिप्रवर ! यह बालमुनि आपमें अतिरंजित है, अतः आप ही इसको ग्रहण करें, शीघ्र ही इसको आहार करायें, प्रेम से इसका संरक्षण करें और दीक्षित करें ।'
श्रीभिक्षु महाकाव्यम्
१२. यावन्नाद्रियते भवान्नवगुणं तीव्रषणं संयम, • कोदण्डोत्तमदण्डवद्रिपुचमूमालक्ष्य लक्ष्यान्वितम् । - कारुण्याकुर कन्दवृन्दविलसत् कादम्बिनी 'केलिभृत्, तावत्सेतुनिबन्धनं प्रणयतां तूर्णं ममापीप्सितम् ॥
हे भिक्षो ! आप करुणा से परिपूर्ण हैं । आप करुणा के अंकुरों को विकसित करने के लिए मेघमाला के समान हैं । जैसे योद्धा शत्रुसेना पर विजय पाने के लिए धनुष्य को धारण करता है, वैसे ही आप अपने लक्ष्य को प्राप्त कराने वाले, तीव्र एषणा से प्राप्त नए गुणवाले संयम को धारण करें । इससे पूर्व मेरे जीवन की सुरक्षा के लिए आप यथेष्ट सेतुबंध की शीघ्र ही व्यवस्था करें |
१३. भिक्षुस्तज्जय मल्लगच्छपतयेऽदात् तं तदा शिष्यवत्, सोऽवक् कीदृशबुद्धिमानयमहो त्रैगेह्यवर्द्धापकः । शिष्याप्त्या मुदितोहमेष सुतरां कृष्णोऽपि संस्थानतो, दैपेयो' निजकच्चरापगमनात् त्रीनेवमानन्दकः ॥
तब भिक्षु ने कृष्णोजी को गच्छपति जयमलजी को शिष्य रूप में सौंप दिया । जयमलजी बोले- 'अहो ! तीन घरों में वर्धापन करने वाले भीखणजी कितने बुद्धिमान् हैं ! मैं तो शिष्य की प्राप्ति से, कृष्णोजी स्थान प्राप्ति से और भीखनजी कचरे के समान कृष्णोजी के अपनयन से - हम तीनों प्रसन्न हो गए ।'
१४. बालोयं मुनिमण्डलीषु ललितो लावण्यलीलालयः,
. स्वर्णाभः किलकष्ट कोटिनिकषोत्तीर्ण प्रवीणप्रभः । 'तज्जातोतिशयाच्चरित्रपतिहृत्सच्चुम्बकाकर्षकः, . सोप्येको हि परीक्षको भुवि नृणां तं रत्नवज्जगृहे ॥
१. कादम्बिनी – मेघमाला ( कादम्बिनी मेघमाला - अभि० २।७९) २. दैपेय: - मां दीपां का पुत्र मुनि भिक्षु