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९६. प्रत्यादिष्टं समयसमयाद् भिक्षुणा भिक्षुवृत्त्या, नूनं जाने स्फुटतरमयं साम्प्रतं पञ्चमारः । किन्त्वार्हन्त्यो ध्रुव इव सनादेकरूपो' हि धर्मस्तस्मिन् कालात् कथमपि कदा नो परावर्त्तनत्वम् ॥
उत्तर देते हुए कहा - 'मैं
यह सुनकर मुनि भिक्षु ने साधुवृत्ति से आगमों के आधार पर यह स्पष्ट रूप से जानता हूं कि यह पांचवां अर है । किन्तु आहेत धर्म ध्रुव नक्षत्र की भांति सदा एक रूप रहा है, शाश्वत रहा है । उस काल से लेकर आज पर्यन्त इसमें किसी प्रकार का कभी भी परिवर्तन नहीं हुआ ।'
९७. एवं मूलोत्तरगुणगणैः श्रेयसः शाम्भवस्य,
नो क्षन्तव्या भवति च परावृत्तिरेषा विशेषात् । मूलं श्रेयो विलसतितरां पञ्चको रुव्रताऽऽयं, द्वैतीयीकं विमलिततपो ह्य ुत्तरं सप्रभेदम् ॥
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्__
मुनि के मूलगुण और उत्तरगुण कल्याण के विधाता हैं। पांच महाव्रत सूल गुण हैं और भेद-प्रभेद वाला तप उत्तरगुण है । विशेष रूप से इनमें परिवर्तन करना या इनसे लौट आना किसी भी प्रकार से क्षम्य नहीं है ।
९८. हिंसाः किं भवति सुकृतं श्रेयसो वा प्रचारो, साद्यैः किं वृजिनजननं कालवैलोम्यतश्च । आज्ञाबाह्ये जिन भगवतां जैनधर्मप्रसूति
राज्ञान्तः किं स्फुरति दुरितं कर्हिचित् कुत्रचिच्च ॥
क्या काल - वैषम्य के कारण हिंसा आदि पापों से धर्म या धर्म-प्रचार तथा अहिंसा आदि धर्मो से अधर्म हो सकता है ? क्या अर्हत् आज्ञा के बाहर धर्म और आज्ञा में अधर्म या पाप कभी किसी प्रकार से संभव है ?
९९. ये निःसत्त्वा भवगसुविधास्वाद सल्लीनदीना,
दोषान् स्वीयान् समयमिषतो गोष्तुकामा मुधैव । शुद्धाचारं र्यमनियमसंपालनायां कदर्या, एह्यानन्दप्रमुख पथिकास्ते हि कालानुगाः स्युः ॥
जो सत्त्वहीन हैं, प्राप्त होने वाली सुख-सुविधाओं को भोगने में तल्लीन हैं, जो समय के बहाने अपने दोषों को व्यर्थ ही छुपाना चाहते हैं, जो शुद्ध आचरण से यम, नियम के पालन में कायर हैं, ऐहिक आनन्द
के मार्ग के पथिक हैं, वैसे मनुष्य ही जमाने के अनुसार चलते हैं ।
१. सनात् सदा ( अभि० ६।१६७ ) |