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________________ नवमः सर्गः २७१ ९२. यावद्भिक्षुर्विहरणविधेर्गोपुराभ्यर्णदेशं, यातस्तावज्जवनपवनैः सम्प्रवृत्तान्धवात्या। मन्ये काञ्चिद् गुरुविरचितां दातुमच्छां प्रतिष्ठामत्रैवैतं कमपि समयं स्थातुमुत्प्रेरयन्ती॥ जब भिक्षु विहरण करते हुए नगर द्वार (गोपुर) के पास पहुंचे तब तेज आंधी चल पडी, मानो कि वह आंधी मुनि भिक्षु को गुरु द्वारा किसी अच्छी प्रतिष्ठा दिलाने के लिए उन्हें कुछ समय तक वहीं रुकने की प्रेरणा दे रही हो। ९३. वात्यायां नो गमनमुचितं सत्सतामिन्यवेक्ष्य, द्वारात् तूणं परमकरुणाक्लिन्नशुद्धान्तरात्मा। स प्रत्यागात् पुरवरबहिर्जेतसिंहाभिधस्य, कासाराल्यां जनकनिलयच्छत्रिकास्वेव तस्थौ ॥ 'तेज आंधी में विहार करना मुनियों का कल्प नहीं है'- यह सोचकर परम कारुणिक और पवित्रात्मा मुनि भिक्षु शीघ्र ही लौट आए और : श्मशान भूमि में तालाब की पाल पर ग्रामाधिपति ठाकुर जेतसिंहजी की '. छत्रियों में ठहर गए। ९४. आकर्येतद् रघुरघुगुरुः पुष्कलैः सन्धलोक स्तत्रायातो वदति बलतो मंक्षु भिक्षु विलक्षः। मा गा मा गा इह मम गणं मां च मुक्त्वाऽयिभिक्षो!, निर्माहि त्वं श्लथितहृदयं वृद्धवाक्यं मनुस्व ॥ · आचार्य रघुनाथजी ने यह सुना और वे संघ के अनेक लोगों को साथ ले छत्रियों पर आए और आश्चर्य व्यक्त करते हुए जोर से बोले-ओ भिक्षु! तुम मत जाओ, मत जाओ। मेरे गण को और मुझको छोडकर मत जाओ। तुम अपने हृदय को नम्र करो, शिथिल करो और मुझ बूढे की बात को मानो। ९५. एष क्लिष्टो विषमविषमो दुःषमारप्रकारः, संवेत्सि त्वं नहि किमधुना कीदृशो गात्रबन्धः । कोऽव्यादस्मिन् समयसमितां साधुतां सौष्ठवेन, प्रत्यायाहि प्रमुदितमनाः स्वाग्रहं प्रोज्झ्य दूरम् ॥ यह पांचवां काल अत्यंत विषम और कष्टप्रद है। शरीर का संहनन भी कितना शिथिल है-क्या तुम यह सब नहीं जानते ? कौन साधक ऐसे क्लिष्ट काल में साधुता का शुद्ध पालन कर सकता है ? तुम अपने आग्रह को दूर कर, प्रसन्न मन से अपने स्थान पर लौट आओ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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