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________________ २६७ नवमः सर्गः ७७. यो जय्यः कैरपि न तृणवन् मन्यमानस्त्रिलोकी, तं गविष्ठं कुसुमकलिकामात्रतश्चूर्णयामि । आर्हन्त्यार्थं तदिवजिनवाङ्मात्रतः कुप्रवादा, जेतव्यास्ते कुसुमसमयस्त्वेवमूचे मुनीन्द्रम् ॥ जो किसी से भी जीता नहीं जा सकता, जो त्रिलोकी को तृण के समान तुच्छ मानता है, वैसे अहंकारी को भी मैं कुसुम कलिका मात्र से चूर्ण-चूर्ण कर देता हूं। वैसे ही आप भी आर्हत् धर्म के लिए जिनवाणी मात्र से कुप्रवादों को जीतें-ऐसा वसन्त ऋतु ने मुनि भिक्षु से निवेदन किया। ७८. माफन्दानां परिमलमिलन्मजरोमालिकानां', पेयं पेयं सुरसमनिशं विश्वसम्प्रीणनार्हाः । तन्नुन्नाः किं कलकलरवान् कोकिलाः कान्तकण्ठा, एतं प्रोत्साहयितुमृषिपं व्याहरन्ते किमद्य ॥ - आम्रों के परिमल से अभिव्याप्त मंजरियों के मधुर मादक रस को सदा पी-पीकर समस्त विश्व को तृप्त करने वाले उस वसंत से ही मानो प्रेरित होकर कान्तकंठवाली कोकिलाएं कल-कल शब्द के मिष से इस मुनिवर्य को प्रोत्साहित करने के लिए ही क्या आज बोल रही हैं ? ७९. धीराधीरा पवनलहरी सौरभाढया सुमालिः, कङ्कल्याद्याः पिककलकलाः पुष्पिताः पुष्पवाटयः। . वासन्त्याद्याः स्थलजललतामालतीमल्लिका च, दोलाखेला सरसिजसरः कूर्दनं मेऽस्ति सम्पद् ॥ वसंत ऋतु ने कहा--धीरे-धीरे बहने वाला यह पवन, सुगंधित पुष्पावलि, कंकेली आदि वृक्ष, कोयल की कुहू कुहू, पुष्पित वाटिकाएं, स्थल और जल में होने वाली वासन्ती आदि लताएं, मालती और मल्लिका की प्रचुरता, झूलों का झूलना, पद्माकरों से परिपूर्ण सरोवर में क्रीडा-यह सारी मेरी संपदा है। ८०. तद्वत् सुदृङ्मननचरणं निर्मलोद्देश्य पूर्व, दानं शीलं ससुमततपो बोधनं भव्यराशेः । सत्स्वाध्यायाचरणकरणाराधनं साधनं स्वमष्टौ योगा जिनवरमतोद्भावनं ते विभूतिः ॥ १. मालिका-मादक पेय (आप्टे)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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