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________________ २६६ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ७४. यः प्रत्यर्थी शमदमगुणानां सदा विश्वविश्वे ऽवीक्षापन्नो यमनियमहृद् व्याप्तविश्वोप्यविश्वः । अत्यन्तोर्जस्वलरतिपतेर्मुख्यसेनाधिनाथ, इष्यः सोऽस्य प्रकृतिषु परावृच्च नासीर वीरः॥ वसन्त ऋतु शम, दम आदि गुणों का शत्रु रहा है तथा पूरे संसार में बिना किसी हिचक से यम, नियम आदि को नष्ट करता रहा है, पूरे विश्व में व्याप्त होकर भी अतृप्त है तथा वह अत्यंत ओजस्वी कामदेव का मुख्य सेनापति है। वह वसन्त अपनी सभी प्रकृतियों को रूपान्तरण कर मुनि भिक्षु का अग्रगामी वीर बन गया। ७५. फुल्लाम्रादौ शुकपिकसरत्सारिकाहंसकेकि रोलम्बादिप्रकृतिसरसोद्गुञ्जनैर्गुञ्जयन्ती। वासन्तश्रीः प्रमुदितमनाः स्वामिशुद्धाशयानां, सोत्कण्ठा स्वागतिरतिरता प्रेरयन्तीव भाति ॥ उस समय विकसित आम्रवृक्षों आदि पर स्थित तोते, कोयल, मैना, हंस, मयूर, भ्रमर आदि के स्वाभाविक तथा सरस गुञ्जारवों से गुजित वासन्तश्री अत्यन्त शोभित हो रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो .वह अत्यधिक प्रमुदित होकर, स्वामीजी के शुद्ध विचारों से उत्साहित तथा स्वागत में रत होकर उन्हें प्रगति के लिए प्रेरणा दे रही हो। . ७६. क्वाम्भःसेकस्तदपि मुकुलं मेदिनीमण्डलास्यं, फुल्लोत्फुल्लं हरितभरितं कल्पयामि प्रकृत्या । एकोपि त्वं वितनु सुतरां श्रायसं मद्वदेव, व्याहतु तं सुरभिरभितः सम्भ्रमैम्भ्रमच्च ॥ पानी के सिंचन के अभाव में भी मैं संपूर्ण वसुन्धरा को स्वाभाविक रूप से पुष्पित, फलित और हरी-भरी कर देता हूं वैसे ही तुम अकेले प्राणीमात्र के लिए कल्याणकारी बन जाओ-ऐसा भिक्षु स्वामी को कहने के लिए वह वसंत ऋतु ससंभ्रम चारों ओर घूमने लगा। १. अविश्व:-अतृप्त । २. इष्यः- वसन्त ऋतु (वसन्त इष्य: सुरभि:--अभि० २०७०) ३. नासीरं-आगे चलने वाली सेना (नासीरं त्वग्रयानं स्यात्-अभि० __३।४६४)। ४. श्रायसं-कल्याणकर । ५. सुरभिः–वसन्त ऋतु।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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