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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् जो सिद्धान्तों के द्वारा नियामक रूप से सम्मत है, वही सत्य है। उसको हम स्वीकार कर, उससे भिन्न असत्य को शीघ्र ही छोड देंगे। मल्पमात्रा वाला शुद्ध सत्य भी भवसागर से पार लगाने वाला होता है, चिरपरिचित बहुसंख्यक मिथ्या आचारों से अधःपतन ही होता है। उनसे हमारा क्या प्रयोजन ?
६१. एतत्श्रुत्वा प्रवदतितरां द्रव्यसूरिस्तदानी
मस्मान् मार्गान् मम मुनिवरान् भेदयेस्त्वं ततः किम् । प्रत्यूचे तं कृषकतुलितान् रक्षयन्तु स्वशिष्यान्, पार्वे चर्चा किमपि न मनाग् वेत्तुमीशा भवेयुः ॥
यह सुनकर द्रव्याचार्य बोले-'क्या तुम मेरे साथ चातुर्मास कर मेरे मुनिवरों में भेद डालकर मेरे से फंटाना चाहते हो ?' भिक्षु बोले---'गुरुवर्य! इस स्थिति में आप ऐसे मंदबुद्धि वाले शिष्यों को ही अपने साथ रखें जो हमारी चर्चा को स्वल्पमात्र भी समझ न सकें ।'
६२. एवं बोद्धं बहुविधतया यत्नवान् भिक्षुरासीद्,
द्रव्याचार्येस्तदपि न मनाक् स्वीकृतं कर्मयोगात् । तस्मात्प्रास्थात्तदनुमतितो मेडतानामपूर्या, चातुर्मासं विरचितुमसावष्टमं सत्यवक्ता ॥
इस प्रकार मुनि भिक्षु अनेक विधियों से गुरु को समझाने में प्रयत्नशील रहे। किन्तु आचार्य ने भिक्षु की प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया। यह कर्मयोग की ही बात थी। गुरु की अनुमति प्राप्त कर सत्यवक्ता मुनि भिक्षु आठवां चातुर्मास मेडता नगर में बिताने के लिए वहां से प्रस्थित हो
। गए।
-- ६३. पूर्णे तस्मिन् पुनरपि निजाचार्यपार्श्वे क्रमेण,
'श्रीमद्भिक्षुर्बगडिनगरे संसृतः शान्तिसिन्धुः । द्रव्याचार्य वदति विदितोऽद्यापि वाङ् मन्यतां मेऽशुद्धाचारं हरतु सहठं सेव्यतां शुद्धवृत्तम् ॥
मेडता का चातुर्मास संपन्न कर शान्तिसिन्धु, विश्रुत मुनि भिक्षु पुनः अपने आचार्य रघुनाथजी के पास बगडी नगर में आ पहुंचे। उन्होंने कहा'गुरुदेव ! अब भी आप मेरी बात मानें और अशुद्ध आचार-पालन के दुराग्रह को छोडकर शुद्ध आचार का पालन करें।