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नवमः सर्गः ५०. कल्याणकातिशयमहती वर्तते नोऽभिलाषा,
विज्ञप्यन्ते पुनरपि पुनः पूज्यपादास्ततो हि । मन्यन्तां तत् स्वहृदयहिमाद्रिं च दुर्भेद्यमानं, नम्रीकुर्युनिभृतमधुना कापि नान्या स्पृहा नः॥
___ आर्य ! एकमात्र आत्म-कल्याण की हमारी महान् अभिलाषा है । इसलिए हम पूज्यपाद से बार-बार निवेदन करते हैं कि आप हिमालय पर्वत की भांति दुर्भेद्य अपने हृदय को पूर्ण रूप से नम्र करें। हमारी बात मान । इसके अतिरिक्त हमारी अन्य कोई स्पृहा नहीं है ।
५१. नेमिश्रेयोरुचिगजभवन्मेघमेतार्यवच्च, '. धायोगैस्त्रिविधकरणः शास्त्रसारावगाहैः ।
न स्याच्छीमन् मम गुरुवर ! प्राणिघाते निमित्तं; तन्नो नाथो गुरुरपिभवांस्तारकः पारको वा ॥
तीर्थंकर नेमिनाथ, धर्मरुचि अनगार, हाथी के भव में मुनि मेघकुमार और मेतार्य मुनि तीन करण, तीन योग से हिंसा में निमित्त नहीं बने।, यही सिद्धान्तों का सारभूत तत्त्व है। गुरुवर ! यदि आप भी. हिंसा में निमित्त न बनें तो आप ही हमारे नाथ हैं, गुरु हैं और आप ही तारने वाले हैं, पार ले जाने वाले हैं।
५२. नो नो स्थेयं चपलचपलं जीवनं चञ्चलाभ,
को जानीयाद गमनसमयं प्राणिनां प्राणतोऽपि । द्याव्येकस्मिन् समतनुभृतां निश्चितं यत्प्रयाणमीदग् योगो न खलु सुलभो गृह्यतां सत्यमार्गः ॥
देव ! यह जीवन अत्यंत चपल और विद्युत् की भांति चंचल है। यह स्थायी रहने वाला नहीं है । प्राणियों के मृत्यु-समय को कौंन जानता है ? एक दिन इस जीव का निश्चित ही यहां से प्रयाण हो जाएगा। गुरुदेव ! ऐसा योग (मनुष्यजन्म, चारित्र आदि) मिलना दुष्कर है, इसलिए सत्य मार्ग को आप स्वीकार करें।
५३. सत्यश्रद्धामिलनमधिकं दुर्लभं देहभाजां,
नो कल्याणं कथमपि भवेद जैनधर्मादते हि । अस्माद् दुष्ठुग्रह इव महान् मुच्यतां स्वाग्रहोऽद्य, मोच्योऽयं सज्जिनवरमतं सेव्यतां सेवनीयम् ॥