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________________ २५८ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् 'गुरुदेव ! आप विकसित कमल की भांति अपने अन्तर् नयनों को उघाड कर, रत्नपरीक्षक की भांति समीक्षा करें और अपने हित को सामने रखकर, अंग-उपांग आदि आगमों पर दिव्यदृष्टि से ध्यान दें तथा चिर-परिचित जो प्रचुर पक्षपात है उसको उसी प्रकार छोड दें जैसे रोग को छोड दिया जाता है।" ४७. शुद्धा श्रद्धाऽपि न निजकरे स्वागता सन्मतिश्च, शुद्धाचारोऽपि न यदि तदा क्वाऽच्छचारित्र्यसम्पत् । रत्नत्रय्या अतिविरहिता एवमेव स्म इद्धा, तत्तीर्णाशा भवजलनिधेः प्रायशो रिक्तरिक्ता ॥ . 'गुरुवर्य ! न तो हमारे हाथ में शुद्ध श्रद्धा ही आई, न सद्ज्ञान और न शुद्ध आचार ही हमें मिला । जब ये तीनों नहीं हैं तो फिर सद् चारित्र की सम्पदा कैसे हो सकती है ? हम रत्नत्रयी से सर्वथा वंचित हैं तो फिर भवसागर से पार जाने की आशा ही शून्यवत् है।' ४८. गेहावहाद्विलसितमयाद् यत् पृथक्सम्प्रवृत्ता- स्तन्नो नूनं सदयहृदयरेककल्याणकामाः। आकांक्षाऽन्या मनसि न मनाक् सर्ववेदा विदन्ति, . कल्याणं नो यदि किमपि नो कि ततो व्यर्थकष्टः॥ दयार्द्र हृदय वाले हमने अपने संपन्न गृहवास को एकमात्र आत्मकल्याण की भावना से छोडा है। अन्य कोई आकांक्षा हमारे मन में नहीं थी, यह सर्वज्ञ भगवान् जानते हैं। यदि यहां कल्याण की भावना पूरी नहीं होती है तो फिर श्रामण्य के कष्टों को व्यर्थ ही क्यों सहा जाए ? ४९. आकल्पाङ्गीकरणकरणच्यते किं निजोऽन्यः, साध्वाचारैः सुविपुलतया विप्रकृष्टा वयं हा ! "अद्यवेमं समयविधिना संयम धारयामो, ह्योवेमां वयमभिनवां पोतवृत्ति वहामः ॥ साध्वाचार से हम अत्यंत दूर चले गए हैं । हमने केवल साधु का वेश मात्र धारण कर रखा है। क्या हम इस प्रकार स्वयं को और दूसरों को धोखा नहीं दे रहे हैं ? गुरुदेव ! आज ही हम शास्त्रानुसार संयम को स्वीकार करें और आज ही हम नवीन पोतवृत्ति को धारण करें- स्वयं तैरते हुए दूसरों के तैरने में सहयोगी बनें।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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