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________________ नवमः सर्ग २५१ २२. लेश्याध्यानाध्यवसितिसयुक पारिणामादि पञ्च, तुल्याः सर्वे नहि विषमतां ते मिथंः संस्पृशन्ति । ' एकस्मिन् यत्सहकलुषिते ते समस्तास्तथा स्युरेकस्मिन् वा विगतकलुषे ते च सर्वेऽनवद्याः ॥ - यह सैद्धान्तिक तथ्य है कि अध्यवसाय, परिणाम, योग, लेश्या और ध्यान--ये पांचों एक कार्य में, परस्पर विषम नहीं हो सकते। यदि इनमें से एक कलुषित-सावध होता है तो पांचों सावध होंगे और यदि एक निरवद्य होता है तो पांचों निरवद्य होंगे ! २३. एवं लेश्यापरिणतिसयुक्ध्यानयुग्मापभाव स्तस्मात् सार्द्ध त्वकृतविषये पुण्यपापं कथं स्यात् । . धर्मध्यानोद्भवनसमये स्यात्कथं ध्यानमार्तमार्ते तद्वत् क्व किमिव भवेद् धार्मिकध्यानधारा ॥ इस प्रकार जब अध्यवसाय, परिणाम, योग, लेश्या और ध्यान एक साथ सावद्य-निरवद्य-दोनों नहीं हो सकते, तब एक ही कार्य में पुण्य और पाप--दोनों कैसे हो सकते हैं ? धर्मध्यान के समय आर्तध्यान कैसे हो सकता है और आर्तध्यान के समय धर्मध्यान कैसे हो सकता है ? २४. षोढा जीवान् गतघृणहृदोदीर्य यो हन्ति तस्य, भावान् शुद्धान् प्रणिगदति यः सोऽस्ति मन्दोऽनभिज्ञः । तादृग्जल्पात्तदनुमतिकृत् प्रेरको हिंसकानां, नाम्ना जैनः सुमतिविकलः शुद्धबुद्धविहीनः॥ ' कोई क्रूर व्यक्ति उंदीरणा कर छह काय के जीवों की हिंसा करता है और कोई उस व्यक्ति के परिणामों को शुद्ध बतलाता है, वह अज्ञानी है, मूर्ख है। वैसा कहने वाला हिंसा का अनुमोदक और हिंसक व्यक्ति का प्रेरक बनता है। वह सुमति से विकल और शुद्ध बुद्धि से विहीन नाममात्र का जैन है। २५. हत्वै काक्षानदयहृदयः पोषणे पञ्चखानां, मिश्रो धर्मः कथमपि भवेद् भावशुद्धि ह्यपेक्ष्य । तद्रव्या त्रिदशसरितास्नानदेवालयादौ, तद्धर्मः स्यान्न' इह मननाद् भावशुद्धेः समत्वात् ॥ १. त्वकृतविषये इति एककार्यगोचरे । 'त्व' इति एकः । २. न:--अस्माकम् ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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