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________________ २५० श्रीभिक्षु महाकाव्यम् बाह्य आभासों से कहीं शुभ-अशुभ योग की युगपत् प्रवृत्ति का होना लगता है तो वह भ्रममात्र है, क्योंकि समय अत्यंत सूक्ष्म होता है । जब अलात को गोलाकार रूप में घुमाया जाता है तो वह अग्नि का चक्र - सा बनकर चमत्कार-सा लगता है । गति की शीघ्रता के कारण ऐसा लक्षित होता है । भाले की नोक से शतपत्र कमल का भेदन करने पर प्रतीत होता है कि कमल के सौ दलों का भेदन एक साथ हो गया है, पर उसका भेदन क्रमशः ही होता है । १९. यावद् वारं विषयनयनं जायतेऽन्तर्मुहूर्त्त - वत् प्रत्येकं क्रमिकमुदयेन् नित्यमीहादिकं च । आन्तर्यं तत् सपदि नियमाच्छक्यते नैव वेत्तुं शीघ्रत्वेन श्रुतमतिमताभ्यां महाभ्यासतोपि ॥ 'प्रत्येक बार इन्द्रिय-विषय का ग्रहण अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के क्रम से एक अन्तर्मुहूर्त्त काल में होता है । वे नियमतः क्रमशः होते हैं किन्तु शीघ्रता तथा अभ्यास के कारण मति - श्रतज्ञानी उनके आन्तर्य - कालभेद को नहीं जान पाते । ' २०. आलोच्योऽयं गहन विषयो ज्ञाननेत्रैर्भवद्भि fe धर्मो भवति न ततः कारणाभावतो हि । मिश्रस्यापि क्वचन समये भेदमात्रोपलब्धिः, पुण्यापुण्योभयविजननी नैकदा सा कदापि ॥ 'गुरुवर्य ! आप अपने ज्ञाननेत्रों से इस गहन करें । मिश्र धर्म के होने का कोई कारण ही नहीं है मिश्र शब्द का प्रयोग है, वह मात्र भेद को बताने के एक भी उल्लेख नहीं है, जिससे पुण्य-पाप की उत्पत्ति होती हो ।' विषय का विमर्श । आगमों में जहां लिए है । ऐसा एक ही कार्य से २१. एकस्मिन् यत्समयसमये कृत्रिमं कार्य मात्रं, न स्यान्नूनं कथमपि कुतो जैनसिद्धान्तसारात् । न्यूनैर्म्यूनो लगति समयो यत्र संख्यातिगोऽन्तःमौहूर्त्ता वा परिणतिमुखेष्वेवमेव प्रबोध्यम् ॥ 'जैन सिद्धान्त के अनुसार एक समय ( काल का न्यूनतम भाग) में कोई भी कृत्रिम कार्य नहीं होता । प्रत्येक कार्य का न्यूनतम कालमान हैअन्तर्मुहूर्त, जो असंख्य समय का होता है । उस प्रवृत्ति की परिणति भी इतनेसमय से कम समय में कैसे होगी ?"
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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