________________
२००
श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् १२८. अनभिज्ञतयेह कथञ्चिदपि, जिनराजविरुद्धनिरूपणकम् ।
विविते यदि कम्पगतं हृदयमिदमेव हि लक्षणमार्यनृणाम् ॥
यदि अनभिज्ञता आदि कारणों से भगवद् वाणी के विरुद्ध प्ररूपणा हो गयी हो और उसका ज्ञान होने पर जिसका हृदय कांप उठता हो, यही आर्यपुरुष का लक्षण है। १२९. तवऽपोहकतेऽतिजवी यदि यः, प्रतियत्नपरो रभसादभितः ।
उपराममृते न विरामकर, इदमेव हि लक्षणमार्यनृणाम् ॥
स्वयं द्वारा कृत विरुद्ध प्ररूपणा को दूर करने के लिए जो उत्सुकता के साथ शीघ्र ही प्रयत्नशील रहता है और जब तक उसका प्रतिकार नहीं हो जाता तब तक वह सुख से विश्राम नहीं लेता, यही आर्यपुरुष का लक्षण है। १३०. तदऽभिज्ञतया समवेदिवचःप्रतिकूलनिरूपणकादरणम् ।
न कदापि कथं कथमेव सृजेदिदमेव हि लक्षणमार्यनृणाम् ।।
जो जानबूझकर जिनवाणी का कभी, किसी प्रकार से प्रतिकूल निरूपण तथा आचरण नहीं करता, यही आर्यपुरुष का लक्षण है।
.. १३१. ममताऽममता सरितोग्ररये, वहतेन्तरदृष्टिरिहापि कदा ।
अविलम्बतया प्रतरेत् प्रसममिदमेव हि लक्षणमार्यनृणाम् ॥ .:. जो अन्तरमुखी होते हुए भी कभी ममता-अममता के सरित्प्रवाह में बह जाता है, परतु जो शीघ्र ही उसे तर जाता है -उससे बाहर निकल जाता है, यही आर्यपुरुष का लक्षण है। १३२. उपललितकस्य तथास्य मुनेः, हृदयान्तरिकोच्चविरागवतः ।
समभूत् परलोकभयं च कियत्, तवियं घटनैव विकाशकरी ॥ .. अन्तर् हृदय में उच्चतम वैराग्य को धारण करने वाले तथा अपनी भूल को पहचानने वाले उन भिक्षु मुनि की आत्मा में न जाने परलोक का कितना भय लगा होगा-यह तो इस घटना से ही स्पष्ट हो जाता है। १३३. परिपावनया शुभभावनया, कृतसङ्गरमैक्ष्य कृतार्थमतिः ।
तमनाथमहर्षिवदुच्चतमं, प्रणिपत्य गदस्त्वरितं विगतः ॥ - भिक्ष की परम पवित्र और शुभभावना से की गई प्रतिज्ञा को देखकर अपने आपको कृतार्थ मानता हुआ ज्वर उनको छोडकर वैसे ही चला गया जैसे अनाथी मुनि को छोड़कर उनकी अक्षि-वेदना । ज्वर ने उनको अंतिम प्रणाम कर वहां से शीघ्र ही प्रस्थान कर दिया।