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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
अरे चेतन ! जो सत्यपथ को प्राप्त कर पुनः असत्य पथ का आश्रय नहीं लेता, वही वास्तव में निपुण है और वही नर-सिंह पद को विभूषित करने वाला तथा विश्व का उद्धार करने वाला होता है ।
९५. रणमुग्रमुदनमुदस्य' यदा, यदलीकवलीक हतेन मया। मयगात्रसमानमहावृजिन', वृजिन रिपुसैन्यमिवाद्य जय ॥
रे मन ! जब मैंने असत्य वचन-समूह का सहारा लिया, उस समय मेरे साथ जो पाप संबद्ध हुआ (जिस पाप की विजय हुई) वह ऊंट के वक्र शरीर की भांति अति कुटिल था। आज मुझे उस पर वैसे ही विजय पा लेनी है जैसे अति प्रचंड रण को स्वीकार कर एक वीर पुरुष शत्रुसेना पर विजय पा लेता है।
९६. ममतासमतासुविवेककर !, जयमानसराजमराल ! मम । वनुजोदयदोलितदोषगणे, भवजैत्रभुजोऽरिजितामनुजः ॥
ममता-समता के विवेक को धारण करने वाले ओ मेरे मानसरोवर के राजहंस मन ! तुम्हारी जय हो। तुम पाखंडरूप दनुज के उदय से चञ्चल होते हुए दोष-समूह का विनाश करने के लिए तीर्थंकर देवों के जयशील भुजावाले अनुज बनो। ९७. अयि चेतन ! चेतय चेतय रे, भव मा भव मन्दबलो निबलः । सबलोऽसि सदा सदनन्तबलो, बलवत्त्वमदः परिदर्शय तत् ॥
(अब वे महामुनि अपने आत्मबल को विकसित करने के लिए चिन्तन कर रहे हैं) अरे चेतन ! तू चेत, तू चेत ! मंद एवं निबल मत बन । तू सबल है। तू सदा ही अनन्त बली रहा है और आज उस अनन्त आत्मबल को दिखा।
९८. प्रतिशोधय शीघ्रमसत्यपथं, परिशोधय शोधय सत्यपथम् । अवरोधय रोधय चञ्चलता, प्रतिबोधय बोधय सत्त्वकलाम् ॥
आत्मन् ! तुम इस असत्यपथ का शीघ्र ही अन्त करो, सत्यपथ का परिशोधन करो, अपने विचारों को दृढ़ कर उनकी चञ्चलता का अवरोध करो और अपनी शक्ति को जागृत करो। १. उदस्य-उत्थाय । २. वलीक-ओरी-छप्पर का छोर । ३. वृजिनं वक्र (वृजिनं भंगुरं भुग्नं-अभि० ६।९३) ४. वृजिनं-पाप (कल्मषं वृजिनं तमः-अभि० ६।१७) ५. अरिजितां-वीतरागाणाम् ।