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________________ षष्ठः सर्गः १९३ परन्तु भिक्षु की आत्मा महान् से भी महान् थी, अतः सहजरूप से ही उनका महत्त्व निखर उठा। क्या कस्तूरी की सौरभ को प्रस्फुरित होने के लिए किसी परहेतु की अपेक्षा होती है ? ९०. परवञ्चनतीग्रहलाहलक, परिपीतमुदीत'मतीवभतम् । विशदाध्यवसायसुमन्त्रबलात्, परिकुञ्च्य विपञ्च्य विमुञ्चति तत् ॥ आचार्य भिक्षु ने सोचा-'परवञ्चनता- दूसरों को ठगने की वृत्ति उग्रतम विष के समान है। हमने जीवन में उसको पाला है. आचरण किया है और हमारा सारा जीवन उससे भरा पड़ा है। अब अपने अध्यवसायों को पवित्र बनाकर, उस पवित्रता के मंत्र-बल से अतीत का परिकुंचन कर, सारे विष का पाचन कर, बाहर निकाल फेंकना है।' ९१. प्रतिबोधयते प्रतिबुद्ध मनाः, मनसैव मन: सुमनायितकम् । तकशान्तिकरः किरण: किरणः, किरणान्न किमु प्रविकाशयते ॥ तब वे महामुनि स्वयं प्रतिबुद्ध होकर अपने विकसित मन को मन से ही प्रतिबोध देने लगे। क्या तस्कर आदि के उपद्रवों को शान्त करने वाला सूर्य अपनी ही किरणों से अपने आपको आलोकित नहीं करता ? ९२. शयत: स्वचिदा निजचेतनकं, न किरेत् कुशलोऽकुशलं च प्रति । प्रतिभः क इह स्वयमात्मपदे, पदतोऽपि कुठारविघातकरः ॥ अरे मन ! मोह के वश में होकर भी कौन कुशल पुरुष अपनी आत्मा का अपनी आत्मा के द्वारा अनिष्ट करता है ? कौन प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति पद-प्राप्ति के लिए अपने पैरों पर अपने आप कुठाराघात करता है ? ९३. करतः कृतकर्मन पस्य यदि, यदितो भवभीमनिकृष्टपथः। . . पथिकः सुविवेकसुधाञ्जनतो, जनितामलचक्षुरुपति पुनः ॥ अरे मन ! अपने किए हुए कर्मरूपी राजा का 'कर' चुकाने के भय से यदि कोई भव-भ्रमण के निकृष्ट पथ पर चलता है तो वह उसका अविवेक है। परंतु जब व्यक्ति सुविवेकरूप सुधाञ्जन से अपने नेत्रों को अमल कर लेता है तब वह पुनः सन्मार्ग पर आ जाता है। ९४. पुनरागतसाधुपथापसरं, सरसोपि करोति न सैव नरः । नरसिंहपदं समलङकरते, कुरुते स हि सर्वसमुद्धरणम् ॥ १. उदीतम् - ईच् गतौ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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