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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ५१. पदतोऽपशदैः शितशस्त्रशतैः, शितधार्मिककैरसुरैः प्रकृतः।
कृतमाहननं मथनीमथनं, मथनमथितस्य इब प्रतनु ।
__ ऐसे नरकों में तीक्ष्ण शस्त्रों को धारण करने वाले नरक के अधिकारी नीची जाति के वे परमाधार्मिक देव उन नारक जीवों का हनन करते रहते हैं और मथनी से मथे जाने वाले दही की भांति उन्हें मथ डालते
५२. तनुषां लवनं गगनोद्धरणं, धरणीधरत: पतनापतनम् । पतनोपरिपादनिपातशतं, शतकोटिकरोटिशिरःस्फटनम् ॥
नरक में वे परमाधार्मिक देव नारक जीवों के शरीर को छिन्न-भिन्न कर डालते हैं। वे नारकों को आकाश में उछालते हैं, ऊंचे पर्वतों से उन्हें नीचे गिराते हैं, नीचे गिरे हुओं को पैरों से रौंद डालते हैं, तथा वज्र के प्रहार से उनके मस्तिष्क की हड्डियों को और शिर को फोड़ डालते हैं ।
५३. स्फुटसन्धिविसन्धिविकुट्टनकं, नखरायुध हिंस्रगणग्रंसनम् । स्वनदारुणदन्तदलदलनं, दलनः क्वचनापि न गन्तुमलम् ॥
वे देव उन नारकीय जीवों की संधियों, प्रतिसंधियों को चूर-चूर कर डालते हैं। वे स्वयं सिंह, व्याघ्र आदि हिंस्र पशुओं का रूप धारण कर उन नारक जीवों को खा जाते हैं। वे अपने भयंकर तीखे दांतों से उनको चीर डालते हैं । इस प्रकार प्रताड़ित होते हुए भी वे जीव बचाव के लिए कहीं भी नहीं जा सकते।
५४. मलिनाशयतोऽथ मिथोऽतिरणं, रणभीषणभूरिभयं तुमुलम् ।
तुमुलारवगौरवदीनतरं, तरसा तरलायितवीतबलम् ॥ ___ मलिन विचारों वाले वे नारक जीव एक दूसरे को पूर्वभव को शत्रुता का स्मरण कराते हुए परस्पर भीषण संग्राम करते हैं एषं जोर-जोर से चिल्लाते हैं और उस तुमुल ध्वनि से वे दीन एवं दुर्बल बन जाते हैं।
५५. बलकीलनकर्त्तनसंखननं, ननकारकृतेपि न संशरणम् ।
शरणाश्रितवैतरणीतरणं, तरणाकुलताडनकादि बहु ॥
५६. बहुनालमनन्तमनन्तमदो, मदमोचकमत्र समं हननम् । न निमेषमितं लवलेशसुखं, सुखतो विमुखं बहुधा सहितम् ।।
(युग्मम्)