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________________ षष्ठः सर्गः १८५ ४६. सुधियं हरतीत्यपवादमिममपकर्तुमदः प्रतिबोधनतः । ___ सुधियां च सुधीप्रद एष इति, सुयशो वरितुं स्पृशतीह मुनिम् ॥ 'यह ताप मानव की सुबुद्धि का हरण करने वाला है', अपने पर लगे इस अपवाद को दूर करने के लिए तथा 'विद्वद् जनों को यह ताप सुबुद्धि देने वाला है'—ऐसा सुयश कमाने के लिए ही मानो ताप ने इनका स्पर्श किया है। ४७. अतिरुष्टपिशाचनिशाचरवत्, प्रबलेन रयेन विभीषयति । अवलोक्य तथाविधतापतपं, भयभीत इवाशु बभूव मुनिः॥ वह तीव्र ज्वर अत्यन्त रुष्ट पिशाच एवं निशाचर की भांति ही उन्हें भयभीत कर रहा था। उस प्रकार के अत्युग्र ताप को देखकर वे शीघ्र ही भयाक्रांत हो गए। ४८. नहि सुष्ठुकृतं नहि सुष्ठुकृतं, बहुदुष्ठुकृतं वितथेन इति । अवलोचयते यवलोचपटुर्भवचित्रविचित्रितचित्रहृदि ॥ __ विमर्श करने में पटु महामुनि भिक्षु ने सोचा-'असत्य की प्ररूपणा कर मैंने अच्छा नहीं किया, उचित नहीं किया। मैंने बहुत अनर्थ कर डाला।' इस प्रकार सोचते हुए उनके हृदय-पटल पर भव-भ्रमण के अनेक चित्र उभर आए। उन्होंने सोचा४९. अतिशायिभयङ्करकष्टकरे, किरण रहितेऽधिकसंतमसे । तमसा पटलै: परिरुद्धपथे, पथकुत्सितचिक्खलके नरके । ५०. नरकारि'निशातकृपाणधरे, धर'कर्कशकर्करभेदपरे । परमावधितापतुषारमये, मय वक्त्रमुखोद्भवजन्मपदे ॥ ___अरे भीखन! तू नारकीय स्थान और वहां के जीवों के कष्टों का चिन्तन कर। नरक में अत्यंत भयंकर कष्ट, प्रकाश का अभाव, चारों ओर सघन अंधकार, गहन अंधकार से अवरुद्ध पथ तथा कुत्सित-पीब, चर्बी आदि के कीचड़ से सने हुए मार्ग हैं। वहां की पृथ्वी का स्पर्श वासुदेव की तीक्ष्ण तलवार की धार के समान अत्यंत तीक्ष्ण है। वह धरा पर्वत के कठोर कंकरों की तरह भेदन करने वाली है। वहां उत्कृष्ट शीत, ताप आदि के कष्ट हैं । नारकीय जीव उष्ट्र की गर्दन की आकृति वाली कुंभियों में उत्पन्न होते हैं। १. नरकारि:-श्रीकृष्ण । २. धरः-पर्वत । ३. मयः --उष्ट्र।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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