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________________ १६६ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ___'अनुमान से आप लोगों को गुरुत्व गुण युक्त समझ कर ही हमने आपको अपनाया था, पर जब प्रत्यक्ष दर्शन आदि से गुरुत्व का अभाव सिद्ध हुआ तब हमने आपको वैसे ही छोड़ दिया जैसे कुमार्ग का भान होने पर पथिक उसे छोड़ देता है । जो चारित्र से भटक गए हैं उनके साथ हमारा कैसा संबंध ?' १३२. एष प्रणामपरिहारकथावशेष स्त्वत्तो न गोप्यमवितं हृदयादिवाऽत्र । तस्मात् यथार्थचरितात् स्वयमुत्तरन्तु, सन्तारयन्तु लघु वोऽपि शरण्यभूतान् ॥ ''वन्दन परिहार की वह अशेष कथा आपके सामने वैसे ही स्पष्ट है जैसे कि मन के समक्ष अपना अच्छा या बुरा कृत्य । अतः आपसे यही अपेक्षा है कि आप शीघ्रातिशीघ्र शुद्ध संयम की आराधना करते हुए स्वयं भवपार पहुंचे और आपकी शरण में आने वाले हम लोगों को भी शीघ्र पार पहुंचाएं ।' १३३. नेत्रावृतेऽपि किमु कोऽपि पदार्थसार्थ मालोकते समवलोकयते च भिन्नान् । पोतात् पृथक् पृथुपयोनिधिपारमाप्तुं, स्वं वा परानपि च नेतुमधीश्वरः कः ॥ 'क्या नेत्र-विहीन कोई व्यक्ति स्वयं पदार्थ-सार्थ को देख सकता है या दूसरों को दिखा सकता है ? जहाज के बिना कोई व्यक्ति अथाह समुद्र के पार न स्वयं जा सकता है और न दूसरों को पार पहुंचाने में समर्थ हो सकता १३४. धैर्यादृतेऽपि धरणिधरणिस्पृशः स्वां, धत्तेऽपि धापयति कि परिवर्तनाभिः। औषण्यादृतेऽपि च चलाचलचित्रभानुः, स्वस्तप्यते किमु परान् परितापयेत ।। 'बिना धैर्य के क्या यह धरा डांवाडोल होती हुई अपने को तथा अपने आश्रित प्राणियों को धारण करने में सफल हो सकती है ? स्वयं बिना तपे क्या यह रविमण्डल उष्णता के अभाव में दूसरों को तपा सकता है ?' १. पृथक्-बिना।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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