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पंचमः सर्गः
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'हम शास्त्रों का अवगाहन कर यह जान पाए हैं कि आपमें मान्य व्यक्तियों द्वारा अनुमोदित और शास्त्रसम्मत श्रद्धा (सम्यक्त्व) भी नहीं है । तो फिर श्रामण्य की तो बात ही क्या ? बिना बीज के पुष्प और फल की उत्पत्ति ही कैसी ?' १२८. प्रक्षालिता गुरुतरा इव गण्डशैला',
दोषा इमे नयनगोचरतां गता नः । ये राजसर्षपसमा विषमा: कियन्त, अस्मादशैः कथमहो परिलक्ष्यमाणाः ॥ ___'ये वर्षा में धुले हुए चट्टानों के समान स्पष्ट दीखने वाले बड़े-बड़े दोष हैं जो कि हमारी आंखों के सामने हैं, पर राई के समान अत्यन्त छोटे-छोटे दोष कितने हैं, यह हमारे जैसे व्यक्ति कैसे जान सकते हैं ?'
१२९. जानीमहेऽनुमितितो गणना न तेषां,
तत् सोक्षम्यसूक्ष्मिककथोपकथैव का स्यात् । बूडन्ति यत्र मदमत्तमतङ्गजाश्चेदौरभ्रकादिगणना किमु तत्र गण्या ॥
'हम अनुमान प्रमाण से यह जान पाए हैं कि जहां बड़े दोषों की कोई गणना नहीं है वहां सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म दोषों की तो गणना ही कैसे हो सकती है ? जिस पानी में मदोन्मत्त बड़े-बड़े हाथी डूब सकते हैं वहां भेड़ों के डूबने की तो गणना ही क्या ?' १३०. ब्रूमो वयं सविनया भवतेऽद्य किं कि
माचारसारकृशिमामहिमा भवत्सु । विज्ञेषु किञ्च बहुना प्रविचारणीयं, मा वञ्चयन्तु सरलाशयशेमुषीन् नन् ।
''हे मेधाविन् ! हम सविनय आपसे निवेदन करते हैं कि आपके सामने हम आचार-शैथिल्य की किन-किन बातों को कहें ? आप विज्ञ हैं। आपको अधिक क्या बताएं ? आप सोचें और सहज-सरल व्यक्तियों के साथ प्रवंचना न करें।'
१३१. दृष्ट्वा गुरुत्वमनुमानबलेन पृष्ठे
लग्ना वयं च भवतां तदभावसिद्धे । त्यक्ता गृहीतकुपथा इव वीक्षणाद्यः,
सम्बन्धबन्ध इह कश्चरणच्युतर्नः ॥ १. गण्डशैलः-चट्टान (गण्डशलाः स्थूलोपलाश्च्युताः-अभि० ४११०२)।