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सतरह
१३७-१४० पति-पत्नी द्वारा ब्रह्मचर्यव्रत स्वीकार । . १४१-१४६ पत्नी की दीक्षा ग्रहण के लिए स्वीकृति । तीसरा सर्ग
१-२ पति-पत्नी द्वारा कठोर प्रतिज्ञा ३.७ पत्नी का रोगग्रस्त होना, उपचार और वियोग । ८-१५ काल-मृत्यु की करालता ।
१६ संयम-ग्रहण के लिए तत्पर । १७-२० नगर-जनों द्वारा पुन: विवाह की प्रेरणा । भिक्षु की
अस्वीकृति । २१ त्यागी का स्वरूप । २२-२६ स्वदीक्षा की योग्यता का परीक्षण । २७-३० मां दीपां से दीक्षा की आज्ञा मांगना । ३१-३८ मां का हृदय-द्रावक कथन । ३९-४४ मातृमोह के निवारण के लिए प्रयत्न । ४५-४७. मां से चार बांतों की याचना ।
४८ मां द्वारा चार असंभावित बातों पर आश्चर्याभिव्यक्ति । • ४९-५१ भिक्षु द्वारा मां को पुनः समझाने का प्रयत्न । ५२-५३ आचार्य रघुनाथजी द्वारा मां दीपां को समझाने का प्रयत्न । ५४-६१ मां दीपां द्वारा सिंह स्वप्न का कथन और उसकी फलश्रुति
स्वरूप स्व अभिलाषा । । ६२-७९ आचार्य रघुनाथजी द्वारा माता दीपां को सिंह स्वप्न के
आधार पर समझाना। ८०-८९ मां दीपां द्वारा पुत्र भिक्षु की परीक्षा के लिए संयम की
दुश्चरता बताना। ९०-१०६ भिक्षु का प्रत्युत्तर । , १०७-११४ सजल नेत्रों से जननी द्वारा चारों ऋतुओं में होने वाले मुनि
जीवन के कष्टों का वर्णन । ११५-१२ जननी द्वारा प्रव्रज्या की स्वीकृति और मोक्ष-संदेश । १२४-१२६ दीक्षा की स्वीकृति से आनन्दित भिक्षु का कंटालिया से बगड़ी
की ओर प्रस्थान । चौथा सर्ग १-४७ दीक्षार्थी भिक्षु का अभिनिष्क्रमण, शोभायात्रा और पौरवासी
: नर-नारियों की आनन्दाभिव्यक्ति ।
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