SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीभक्षु महाकाव्यम् वैरागी की दीक्षा शोभायात्रा उस उपवन में पहुंची। खोजते हुए वहां 'वडली का देहरा' अर्थात् वटी या वट से पहचाने जाने वाले एक दिव्य देवालय को देखा । उस उपवन के अग्रिम भाग में वट वृक्षों से समृद्ध एक विशाल वट वृक्ष था जो अपनी विराटता से अन्य समस्त वृक्षों को जीतकर छत्र की भांति वहां छाया हुआ था । १२६ ११७. यो न्यक्षरूक्षेषु महत्वशाली, भूमान् यथा मानवमण्डलेषु । तद् गौरवात् किन्तु गरुत्प्रकीर्णकै वज्यते स्माश्रगमैः स्फुरद्भिः ॥ मनुष्यों में राजा की भांति वह वट वृक्ष सभी वृक्षों में महत्वशाली था । उस महत्व के कारण ही क्या उडते हुए पक्षिगण अपने-अपने पंख रूप चामरों को उस वृक्ष पर डुला रहे हैं ? ११८. आगामिकालेऽत्र सुभावितात्मा, संवत्तिताऽसौ च शमीश्वरोऽपि । तत्पल्लवं रागमुदीरयन् कि, शालो विशालोऽयमशालताऽत्र ॥ यह बालक आगामी समय में भावितात्मा होगा और मुनियों का नेता भी बनेगा, इसीलिये मानो वह विशाल वट वृक्ष अपने नव्य प्रवालों से उसके प्रति अपना प्रेम दर्शाता हुआ चमक रहा था । ११९. त्वग्भिस्तनुत्राणकरो यदर्थ, बिाज्जटालों जटिलां पिशङ्गाम् । तन्वंस्तपस्तापसवद् वनान्ते, जातः कृतार्थोऽद्य किमेतमक्ष्य ॥ यह वृक्ष छाल से अपने शरीर की रक्षा करता हुआ, पीली जटिल जटा को धारण करता हुआ और एक तपस्वी की भांति वन के एकान्त में तप तपता हुआ एक योगी की भांति जिस प्रयोजन से समय बिता रहा था, आज उसके दर्शन से कृतार्थ हो गया । १२०. अन्तर्निविष्ट स्फिर विष्किराणां विस्फारतारस्वरतो वटदुः । वातस्फुरत्पल्लवपाणिभिः किमेतं निजोपान्तमिवााह्वयन् यः ॥ वह वट वृक्ष अपने पर निविष्ट पक्षि-समूहों के तार स्वर से तथा वायु से प्रकंपित पल्लव रूप हाथों से उस बालक दीक्षार्थी को मानो अपने निकट बुलाने के लिए आह्वान करता हुआ-सा दिखाई दे रहा था । १२१. विस्तीर्ण सच्छायतदंहिपेषु विभ्राजमानं स्वगुरुं जनोघं: । नेत्राञ्जनीकृत्य समेत्य तत्र, वावन्द्यते स्मैष स बीजियुक्तः ॥ सुविस्तृत घनी छायावाले उस वृक्ष के नीचे विशाल मानवमेदिनी के बीच अपने गुरु को सुशोभित देख दीक्षार्थी बालक भारीमाल वहां आए और पिता के साथ गुरु चरणों में वंदना की । १. न्यक्ष:- समस्त (न्यक्षाणि निखिलाखिले - अभि० ६ । ६९ )
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy