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भीभिक्षुमहाकाव्यम्
. हे सखि ! यह हम जैसी क्षणिक रागवाली स्त्रियों के भोग से विरक्त होकर शाश्वत चिदानन्दविलासोत्पादिनी मुक्ति को प्राप्त करने के लिए जा रहा है।
४५. तास्तास्तदा शान्तहृदोऽनुकला, वामाः प्रशंसन्ति तमीक्षमाणाः । धन्योऽस्ति धन्योस्त्ययमङ्गभाजां, यो यौवनेऽस्मिन् श्रमणत्वमीप्सुः ।।
तब वे स्त्रियां शांत और अनुकूल होती हुई उस विरागी को देखकर प्रशंसा के स्वरों में कहने लगीं-ओह ! यही मनुष्यों में धन्य है, धन्य है जो इस यौवन के प्रभात में श्रामण्य को प्राप्त करना चाहता है।
४६. एवं हि सर्वत्र यशोभिवादान, जाजायमानान् प्रणयंश्श्रुताभ्याम् । यत्राऽपि तत्रापि जनानुरोधैनिरुध्यमानोऽन्यमनोनुदर्शी ।।
इस प्रकार सर्वत्र यशोगान को अपने कानों से सुनता हुआ तथा दूसरों के मनोगत भावों को देखता हुआ वह विरक्तचेता विरागी लोगों के अनुरोध से स्थान स्थान पर रुकता हुआ जा रहा था।
४७. और्वाङ्गनादर्शनदामदिव्यः, ऊर्वीजनालोचनमालभारी। आशीर्वचःपूरितकर्णयुग्म, आनन्दमृद्वन्निरगानगर्याः ।।
छतों पर खडी स्त्रियां उनको एकटक निहार रही थीं और पृथ्वीतल पर खडे लोग आंखें फाड-फाड कर उनको देख रहे थे। चारों ओर से गूंजने वाले आशीर्वाद के वचनों से कान बहरे हो रहे थे। इस प्रकार आनन्द से ओतप्रोत भिक्षु नगर से बाहर आए।
४८. दृङ्गाद् बहिर्वीपवतीप्रतीरे, कान्तारनेतारमिवेति रम्यम् । श्रीभिः पराभूतसमस्तवृक्षं, न्यग्रोधवृक्षं स शुभं ददर्श ॥
उन्होंने नगर के बाहर नदी के तट पर एक विशाल शुभ वट वृक्ष को देखा। वह अपनी शोभा से समस्त वृक्षों को पराभूत करने वाला तथा वनराजा के सदृश रमणीय था।
४९. सोऽपि स्वयं नव्यप्रवालनेत्ररालोकयन् सन्मुखमाश्रयन्तम् । नानानभःसङ्गमसन्निनादराह्वाययन संस्तमिवाऽभिमाति ॥
वह वट वृक्ष अपने नव्य प्रवाल रूप नेत्रों के सन्मुख आते हुए इस महाभाग को देख मानो नाना प्रकार के पक्षियों के मधुर नाद से उस वैरागी को आह्वान करता हुआ-सा प्रतीत हो रहा था।