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________________ ११० श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ऐसे समारोह में वे विरोधी वाद्य-स्वर भी अपनी अपनी मलिनता को छोड़ मित्रता पूर्वक एक दूसरे की तान (लय) में मिल गये। तो क्या पर्व आदि उत्सवों में शिष्ट एवं भद्र लोग विरोधी भावनाओं को भूल परस्पर मित्रता का व्यवहार करते हुए एक दूसरे से नहीं मिल जाते ? ३५. माहात्म्यमस्याद्भुतमेव किञ्चिन्, मा विरागा: किमु तद् विचित्रम् । रागनिजाङ्कानऽपरान् सृजन्तो, जाता अपूर्वा मकरध्वजाश्च ॥ इनके अद्भुत माहात्म्य से कोई मनुष्य विरक्त बन जाये इसमें तो आश्चर्य ही क्या परन्तु जो दूसरों को कामराग से अपने समान रागी बनाते थे वे कामदेव तुल्य व्यक्ति भी अपूर्व विरागी बन गए। ३६. आतापदम्भाद् हृदऽमात्तहर्ष, क्षिप्यन् क्षपाक्षीणकरः समन्तात् । पिष्टात पुजं यदि वा प्रभूतं, प्रोड्डाययन् सम्मिलितो नभस्थः।। इस समारोह की ऐसी दिव्य छटा देख स्वयं सूर्य भी इतना अधिक हर्षाकुल हो उठा कि वह उस अपार हर्ष को अपने आपमें समाहित नहीं कर सका, इसीलिये उसने इस आतप के मिष से अपने हर्ष को चारों ओर बिखेर कर अथवा सुगंधित चूर्ण को प्रचुरमात्रा में फेंकता हुआ स्वयं समारोह में भाग लेने के लिए आकाश में आ खडा हुआ। ३७. प्रस्तावविज्ञो दिवसेऽवितत्य, गुच्छीकृतानाशात्मकरान सुधांशुः । सम्प्राहिणोच्चञ्चलरोमगुच्छ-व्याजात्ततस्तद्वियुतो गतः खम् ॥ तब अवसरवादी चन्द्र ने दिन में संकुचित होकर अपनी समस्त किरणों का गुच्छा बना उनको चंचल चामर के मिष से उस विरागी का स्वागत करने के लिये पहले ही वहां समारोह में भेज दिया और स्वयं किरणों से रहित होकर आकाश में आ खडा हुआ। ३८. नार्योप्यरत्या निजनैजसौधादुच्छृङ्खला एत्य गवाक्षमालाम् । विभ्राजयन्ति प्रमदा: सवेगाः, पारस्परोत्पीडनमादधानाः ।। जुलूस को देखने के लिए लालायित ललनाएं उत्सुकता से उच्छृखलसी होती हुई, शीघ्रता के कारण पारस्परिक उत्पीडन को सहन करती हुई अपने-अपने मकानों के गवाक्षों को सुशोभित कर रही थीं। १. च इति अपि । २. क्षपाक्षीणकर:-सूर्य । ३. पिष्टातः-सुगंधित चूर्ण (पिष्टातः पटवासक:-अभि० ३।३०१) ४. अरतिः-उत्सुकता (औत्सुक्यं""आयल्लकारती- अभि० २।२२८)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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