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________________ चतुर्थः सर्गः १०९ कुछ व्यक्ति उत्सुकता से राजमार्ग तथा बहुमार्गी स्थानों पर नट-विद्या का सुन्दर प्रदर्शन कर रहे थे। कुछ उनको देखने के लिए चित्रित मनुष्यों की भांति स्थिर खड़े थे और कुछ देवों की भांति निनिमेष बन रहे थे। ३०. शोभामनन्यामुपलक्ष्य तत्र, नानाप्रकादि गुणायमानाः। ___ वाद्यस्वरा व्योमतले प्रसनुडिम्भा यथा वै पितुरङ्कपाल्याम् ।। ऐसे अनन्य समारोह की दिव्य छटा को देखकर प्रोत्साहित हुए वाद्यस्वरों ने अपनी गति (ध्वनि) को द्विगुणित करते हुए अनन्त आकाश में वैसे ही फैल गए जैसे अपने पिता की गोद में बालक । ३१. एतत् क्षणात केपि न वञ्चिताः स्युरेवं विवादाद् गहनालयेऽपि । वादित्रनादा: शुभदूतदेश्या, आमन्त्रयन्त: परितः स्फुरन्ति । _ 'इस महोत्सव से कोई वंचित न रह जाये', इस विशेष प्रयोजन से घर के भीतर बैठे मनुष्यों को भी आमन्त्रित करने के लिए शुभ दूतों की भांति वाद्य-स्वर अहमहमिकया चारों ओर फैल गए। ३२. तद्वत्तविनाः परिशेषमा, उत्कण्ठिता के मिलिता न तत्र । आनन्दतो विस्मृतभिन्नकार्या, नानाविधालापजुषस्तदानीम् ।। इन वाद्य-स्वरों से समारोह की जानकारी प्राप्त कर अवशिष्ट लोग भी उस समारोह में सम्मिलित होने के लिए उत्कंठित हो गए। ऐसे कौन थे जो उस समारोह में सम्मिलित न हुए हों ? लोग आनन्दविभोर होकर अन्यान्य कार्यों को भी भूल गए तथा उस समय नानाविध आलाप-संलाप करने लगे। ३३. सम्मर्दनं सम्मदतीन्मदिष्णु, संकीर्णता सम्प्रविकीर्णहर्षा । वाचालताऽस्मिन् रसनालिकाऽभूत्, शृङ्गारभूतं विगतत्रपत्वम् ।। उस जुलूस की अपार भीड में जो सम्मर्दन हो रहा था, वह भी सम्मद (हर्ष) को ही उद्दीप्त करने वाला था। जो संकीर्णता थी वह चारों ओर हर्ष को ही विकीर्ण कर रही थी। जो वाचालता थी वह रस की नहर बहाने वाली थी और जो निर्लज्जता (उचित नि:संकोच वृत्ति) थी वह भी वहां शृंगार बन गई थी। ३४. मालिन्यमुत्सृज्य विरोधिनोऽपि, वाद्यप्रघोषा मिलिता यदस्मिन् । मित्रीयमाणा नहि कि भवेयुलॊकेऽपि पर्वादिषु सभ्यलोकाः ॥ १. विन्नं-विचारित (विन्नं वित्तं विचारिते-अभि० ६।१११) ..
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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