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________________ ९८ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् मां दीपां पुनः बार-बार कहने लगी-'वत्स ! तुम ही धन्य हो। तुम्हारा जन्म ही सार्थक है । तुम ही निर्मल मुक्ता की भांति निर्दोष हो । तुम ही अपने दीप्त कुल को और अधिक उद्दीप्त करने वाले हो ।' ११७. न मादशैर्जन्ममितद्'मग्नरनिर्गमाहर्जलजन्तुवत् कात् । दुराकलं संयमनं ध्रियेताऽबलरधीशैरिव दुर्गराज्यम् ॥ 'हे पुत्र ! मुझ जैसी कायर स्त्रियां तो जलजन्तु की तरह ही इस जन्म-मरण रूप समुद्र से बाहर निकलने में असमर्थ हैं और संयम स्वीकार करना तो मेरे लिये वैसे ही दुष्कर है जैसे किसी निर्बल राजा के द्वारा दुर्गराज्य को ग्रहण करना।' ११८. खगोचराच्छन्न भवान्धकूपं, विलोकयन्नेव विलोकते ना। अतो ह्यधोधः पतति प्रसन्नो, निवार्यमाणोऽपि मदान्धवद् वा। 'यह संसाररूपी अंधकूप इन्द्रिय-विषयों से आच्छन्न है। मनुष्य इसे देखता हुआ भी नहीं देखता। इसलिए वह रोके जाने पर भी मदान्ध की भांति प्रसन्नचित्त से उस कूप में नीचे से नीचे गिरता चला जा रहा है।' ११९. अनादिधाजन्मपरम्पराभिः, स्वबद्धकर्माणुभिरेव वश्यः। जनो यथा मूल्यगृहीतभृत्यः, कथितोऽपि ऋयिकः प्रणेयः ॥ 'नाना प्रकार की कदर्थनाओं से कर्थित होते हुए भी जैसे क्रीत दासों को अपने खरीददार के वश में रहना पड़ता है, वैसे ही अनादिकाल की जन्म परंपरा से बन्धे हुए जीव को इन जड़ कर्मों के वश में रहना पड़ता है।' १२०. स्वकर्मसंछन्ननिसर्गभावस्ततः स्वतन्त्री बत ! बम्भ्रमीति । समोऽपि लोकोऽत्र परक्रियासु, पिशाचकी वा किमु वातकी वा ॥ 'हे वत्स ! प्राणियों का नैसर्गिक भाव अपने-अपने कर्मों से आच्छन्न रहता है। अतः वह परक्रिया-परभाव में स्वतंत्र व्यक्ति की भांति चक्कर लगा रहा है, मानों कि वह पिशाच आदि से ग्रस्त हो अथवा वायुरोग से पीडित हो।' १२१. सुखं सदा वैषयिकं विमुग्धाः, सुधामिवास्वादयितुं प्रवृत्ताः । निकृष्टसंसर्गमिवाऽवसाने, न जानते जन्तुगणा अनिष्टम् ॥ १. मितद्रुः–समुद्र (सिन्धूदन्वन्तो मितद्रुः समुद्रः-अभि० ४।१३९) २. खं-इन्द्रियं, तस्य गोचरः-विषयः, इति खगोचरः ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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