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________________ तृतीयः सर्गः १११. तदुत्तरं स्वां जननीमुवाच, प्रियंवदः स स्वयमेव युक्त्या। ___ न कापि चिन्ता च निराशितानामितेषु शीतोष्णजलागमेष ॥ तब प्रियभाषी पुत्र ने माता को स्वयं ही युक्ति पुरस्सर उत्तर देते हुए कहा-'मां ! निस्पृह व्यक्तियों को शीत, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु के आने पर भी कोई चिन्ता नहीं होती।' ११२. विशुद्धदृष्टिज्ञचरित्रवस्त्रो. विवेकदीपो निगमोऽग्निपात्रिः। अहं प्रभावीति भविष्यतो मे, हिमर्तुकोपोऽपि कथावशेषः । 'मां ! जिस दिन मैं साधना पथ का पथिक बन जाऊंगा तब विशुद्ध ज्ञान-दर्शन और चारित्ररूप ही मेरे वस्त्र होंगे, विवेकरूप दीप होगा और आगमरूप सिगडी होगी। इन सबसे मैं सशक्त हो जाऊंगा। तब हिम ऋतु के सारे उपद्रव स्वतः नष्ट हो जायेंगे।' ११३. सुशीलतास्नानपवित्रितस्य, सदोज्ज्वलक्षान्तिनिचोलकस्य । विरक्तिदामश्रुतबीजनस्य, निदाघकालेऽपि मुनेः समाधिः ॥ 'विशुद्ध शील स्नान से पवित्र, सदा क्षमारूप उज्ज्वल वस्त्रों से आवेष्टित, विरक्तिरूप माला से शोभित और श्रुतज्ञानरूप पंखे से वीजित मुनि के लिए ग्रीष्म ऋतु में भी समाधि ही रहती है।' ११४. जिनागमाघोषणचिन्तनादिरम्याणि यत्प्रेक्षणकानि नित्यम् । भवन्ति तत्त्वाधिगमोत्सवानि, दिनानि मेघर्तुमयानि साधोः । 'मां ! मुनि के लिए वर्षा ऋतु के दिन आगमों के अध्ययन, चिन्तन तथा विमर्शयुक्त होते हैं । ये ही मुनियों के प्रेक्षणक मनोरंजक होते हैं। उन दिनों तत्त्वज्ञान रूप नए-नए उत्सव प्रतिदिन होते रहते हैं । वे दिन मुनि के लिए आनन्ददायी ही होते हैं।' ११५. ततोऽतिचिन्तां परिहाय मातः ! प्रदेहि दीक्षाग्रहणे नियोगम् । जलाऽऽविलाक्षी तनयं ततः सा, यथासुखं स्यादिति संजगाद ॥ 'अतः हे माता ! अब इस अतिचिन्ता को छोड़ आप मुझे दीक्षाग्रहण की स्वीकृति प्रदान करें।' तब दीपां मां आंखों से आंसू बहाती हुई बोली-'वत्स ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो।' ११६. पुनः समानेडितमभ्यधात् सा, त्वमेव धन्यः कृतलब्धजन्मा। त्वमेव मुक्तेव विमुक्तदोषोऽदिदीप उद्दीप्तगुणं स्ववशम् ।। ------- १. निगमः-आगम ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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