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________________ तृतीयः सर्गः ८२. प्रकृष्टनिष्पिष्टसमस्तशत्रुमहोग्ररोषारुणचक्रभृद्भिः। चलच्छरासारपतद्भटालिभयङ्करोव्यां समरं विधेयम् ।। 'हे वत्स ! संयम-साधना के पथ पर बहना वैसा ही है जैसे बाणों की बौछार से निष्प्राण होकर गिरते हुए सुभटों से भयंकर रणभूमि में समस्त शत्रुओं का नाश करने वाले महान् उग्र और कोपारुण चक्रवर्ती के साथ युद्ध करना।' ८३. इदं त्वदीयं सुकुमारगात्रं, महावतान्यद्य कथं सहिष्ण । अयुक्'सुमेरूरुभरं दधत् किं, सुकेतकीकोमलपुष्पपक्ष्म ॥ ___'वत्स ! तुम्हारा यह शरीर सुकुमार है । यह पांच महाव्रतों के भार को कैसे सहन कर सकेगा ? क्या केतकी पुष्प की कोमल पंखुडी पांच सुमेरुओं का गुरुतर भार वहन कर सकती है ?' ८४. परीषहाणां परितप्तिमेतां, सहिष्यते कि मृदिमाङ्गलक्ष्मीः । मृणालिनी नीरबहिःस्थिता किं, सहिष्णुरुद्दामदवाग्निदाहम् ॥ _ 'क्या तुम्हारी कोमल-काया की लक्ष्मी उन परीषहों की उन तप्ति को सहन कर सकेगी ? क्या पानी के बाहर स्थित कमलिनी उग्र दावानल के दाह को सहन कर सकती है ?' ८५. उपानहाद्यैः परिवजिताभ्यां, पदाम्बुजाभ्यां जितवारिजाभ्याम् । कठोरनिम्नोन्नतशर्कराभृद्धराविहारोऽपि विचारणीयः॥ 'अरे वत्स ! इन नंगे और कमल से भी अत्यंत सुकोमल पैरों से कंकरीली-पथरीली और ऊंची-नीची भूमि पर विहार करना भी विचारणीय ८६. वदान्यतावृत्ति तिरोहितीकृतसुपर्वशाखी त्वमपत्रपिष्णुः । निजाभिमानी वरिता कथं तद्, गृहे गृहे भक्षमतीवचित्रम् ॥ १. अयुक्-विषम संख्या - ३,५,७ आदि का वाचक (अयुविषमशब्दौ त्रिपञ्चसप्तादिवाचकौ अभि० १११५) २. मृणालिनी-कमलिनी (मृणालिनी पुटकिनी""-अभि० ४।२२६) ... ३. वदान्यतावृत्तिः-उदारवृत्ति । ४. सुपर्वशाखी-कल्पवृक्ष । ५. अपत्रपिष्णुः-संकोचशील (लज्जाशीलोऽपत्रपिष्णुः-अभि० ३।५४)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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