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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
___ 'हे दीपे ! क्या तुम इन्द्रजाल के समान क्षणिक भौतिक प्रभुता को पाकर ही इस महान् उच्चतम स्वप्न की पूर्ति करना चाहती हो ? परन्तु यह प्रभुता जादूई लक्ष्मी के समान चमत्कार दिखाकर चिरकाल तक नीचे से नीचे गिराने वाली है।' ६८. ततस्तदायल्लकता समुज्झ्य, भ्रमात् पराचीन मुखीप्रभूय ।
श्रवाध्वनीनां कुरु मेऽद्य वाचं, प्रमाणपुष्टां वितथाऽपकृष्टाम् ॥
'अत: उत्सुकता को छोड़कर तथा राज्यलक्ष्मी के भ्रम से पराङ्मुख होकर अब तुम मेरी प्रमाणयुक्त तथा सत्य बात को ध्यानपूर्वक सुनो।'
६९. नखायुधस्वप्नफलं सदर्थं, समीहसे चेद् व्रतवैतमाशु । कुदृक्कुरङ्गान् रचितुं कुरङ्गानसौ नृसिंहो भविताऽऽर्हतेषु ॥
'यदि तुम सिंह स्वप्न को सार्थक बनाना चाहती हो तो अविलंब इस बालक को मुनि बनने दो। दीक्षित होकर यह बालक पाषंडरूप कुरंगों को कु-रंग करने वाला होगा और यह अर्हत् शासन में नरसिंह की भांति प्रभावी बनेगा।'
७०. अनाद्यनन्तोद्भवतोयनिम्नाद्, विकल्पकल्लोलितमोहचक्रात् ॥
भवार्णवाद् भावुकतारणार्थमसी महापोत इवाऽत्र भावी ॥
___ 'यह संसार-समुद्र अनादि-अनन्त काल से जन्म-मरण रूप पानी से गहरा है। यह विकल्पों से कल्लोलित और मोह के आवत्तों से युक्त है। इस समुद्र से भव्य व्यक्तियों को पार पहुंचाने के लिए तुम्हारा यह पुत्र महापोत बनेगा।'
७१. गम्भीरमिथ्यातिमिरोमिलुप्तजगज्जनालोकसशोकलोके । अनूरुसूत प्रतिमोऽस्य बोधः, प्रकाशकारी भविता भयोद्भिद् ।।
'मिथ्यात्व रूप महान अन्धकार से जनता का आत्मिक आलोक लुप्तप्रायः हो चुका है और यही कारण है कि आज समूचा मानव समाज शोकाकुल है । हे बहिन ! तुम्हारा यह पुत्र भय का उन्मूलन कर अज्ञानान्धकार से व्याप्त इस लोक को अपने दिव्यज्ञान रूप सूर्य से पुनः आलोकित करेगा।'
१. आयल्लकम्-उत्सुकता (औत्सुक्यं “आयल्लकारती-अभि० २।२२८) २. पराचीनं-पराङ्मुख (पराचीनं पराङ्मुखम्-अभि० ६१७३) ३. श्रवाध्वनीनः-कानों का पथिक । ४. अनूरुसूतः-सूर्य ।