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________________ आचार्य ज्ञानसागरजी का क्षेमेन्द्र के द्वारा प्रतिपादित चमत्कार तत्त्व का अपने जयोदय महाकाव्य में वर्णन अद्वितीय है। आचार्य क्षेमेन्द्र ने इस प्रकार आचार्यों की मान्यताओं को नया नाम और वर्गीकरण देकर एक सुव्यवस्थित रुप प्रदान किया है। यह चमत्कारतत्त्व रससिद्ध कवियों की वाणी में सहज रूप से ओतप्रोत रहता है। क्षेमेन्द्र के विचार से जो भी कवि कहलाता है वह सौन्दर्य योजना में अवश्य समर्थ होता है। जो चमत्कार की सृष्टि नहीं कर सकता उसको अपनी काव्य रचना को केवल पद्य रचना समझना चाहिए। उसको काव्य की श्रेणी में नहीं रख सकते। प्रत्येक काव्य चाहे मुक्तक हो या प्रबन्ध हो बिना चमत्कार के नहीं हो सकता। काव्य सुन्दर वर्णों से निबद्ध तथा पूर्णतया निर्दोष होते हुए भी चमत्कार हीन रहने पर अनाकर्षक ही रहता है। चमत्कार काव्य में सौन्दर्योत्पादक साधन के रूप में रहता है। आचार्य क्षेमेन्द्र के चमत्कार का निरूपण अवलोकनीय है उनके विवेचन में एक प्रकार की स्थिरता प्रतीत होती है। क्षेमेन्द्र ने चमत्कार के महत्व का वर्णन करते हुए कहा है कि जिस प्रकार ऋतु में भी अभी - अभी विकसित विशिष्ट पुष्पों की सुगन्ध के आस्वाद के लिए पर्युत्सुक भ्रमर रमणीय वन की ओर दौड़ता है, उसी प्रकार काव्य में सौन्दर्यातिशय के निर्माण की इच्छा रखने वाला सत्कवि वाणी की चमत्कृति के लोभ से आकर्षक विषय, मनोहर शब्द तथा रमणीय अर्थ वाले काव्य का अनुसरण करता है। सुकविरतिशयार्थी वाचमत्कारलोभा - दभिसरति मनोज्ञे वस्तुशब्दार्थसार्थे । भ्रमर इव वसन्ते पुष्पकान्ते बनान्ते। नवकुसुमविशेषमोदमास्वादलोलः॥ चमत्कार निर्माण में अक्षम कवि में कवित्व का अभाव होता है। चमत्कार से रहित काव्य काव्यत्व से हीन होता है। अतः काव्य की कोटि में नहीं आ सकता है। सुन्दर पद-विन्यास जहाँ चमत्कृति पूर्ण हो वहाँ मणिकांचन योग के समान सर्वदा मनोहरता विद्यमान रहती है। एकेन केनचिद्नर्घमणिप्रभेण काव्यं चमत्कृतिपदेन बिना सुवर्णम्। निर्दोषलेशमण्पि रोहति कस्य चित्ते लावण्यहीनमिव योवनमङगनानाम्॥ युवतियों का तारुण्य लावण्यहीन होने से क्या किसी के चित्त को आकृष्ट करता है ? अर्थात् नहीं। वैसे ही रोष के लेश मात्र से भी रहित वर्गों 1. कविकण्ठाभरण, 3/1 2. कविकण्ठाभरण, 3/2
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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