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जयमहीपतेः साधुसदूपास्ति चक्रबन्धः
जन्मश्रीगुप्साधन स्वयभवन् संदुःखदैन्यादेन्याद बाहिर्थनेनैषं विधुप्रसिद्धयशसे पापायकृत सत्तवयः । मंजूपासकसडगतं नियमनं शास्ति स्म पृथ्वीभृते, तेजः पुंजमयो यथागममथा हिंसाधिपः श्रीमते ॥
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चक्रबन्ध के अरों के प्रत्येक अक्षर और छठे अक्षर को क्रमशः पढने पर जयमहीपतेः साधुतदुपास्ति यह वाक्य बनता है । वह इस बात का सूचक है कि इस सर्ग में जयकुमार के द्वारा साधु की उपासन की गयी है। तज्जन्मोत्थितमित्थमुन्मदसुखं लब्ध्वा यथापाकलि
पश्चात्सम्प्रति जम्पती अदमतामेवं हृदा चारूणा । पंचाक्षाणि निजानि निर्मदतया तदृत्तमत्युतमं भडक्षूद्गीतमिहोमवीतपदकैरित्युतॄणाडकं मम ॥
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