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आद्य वक्तव्य राजस्थान की राजधानी जयपुर नगर से 16 किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में सांगानेर प्राचीन तथा वैभवपूर्ण नगर है। यहाँ अनेक विशाल जिनमंदिर तथा धवल और उत्तुंग कलापूर्ण प्रासाद हैं। किसी समय यहाँ चांदी एवं जवाहरात का प्रचुर मात्रा में व्यवसाय होता था। यहाँ 700 जैन श्रावकों के घर थे। राजनैतिक कारणों से यहाँ उथल-पुथल मचती रही और इसकी समृद्धि में हास होता गया, किन्तु अनेक प्राचीन लेखकों के उल्लेख यह सिद्ध करते हैं कि यहाँ के श्रावक धर्मकार्य में सदैव अग्रणी रहे और विविध महोत्सवो के साथ यहाँ साहित्यिक गतिविधियाँ चलती रही।
सांगानेर में एक जैन मंदिर अपनी स्थापत्यकला और पुरातत्त्व के लिए विश्वविख्यात है तथा प्रतिदिन अच्छी संख्या में देशी और विदेशी पर्यटक यहाँ आते रहते हैं। यह मन्दिर संघी जी के मन्दिर के नाम से प्रख्यात है। यहाँ मूलनायक भगवान आदिनाथ की सुन्दर एवं अतिशयकारी प्रतिमा है। मन्दिर में सैकड़ों की संख्या में जिनबिम्ब विराजमान है। यह मन्दिर सात मंजिल का है, जिसकी दो मंजिल ऊपर व पाँच नीचे हैं। मध्य में यक्षरक्षित भूगर्भ स्थित प्राचीन जिन चैत्यालय है। यहाँ अतिशयकारी, मनोज्ञ अनेक जिन बिम्ब विराजमान है। यहाँ मात्र बालयति दिगम्बर साधु ही जा सकते हैं तथा एक निश्चित अवधि के लिए संकल्प पूर्वक ही प्रतिमायें दर्शनार्थ बाहर विराजमान कर सकते हैं। 20 वीं सदी के प्रथम आचार्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी महाराज का पदार्पण यहाँ सन् 1933 की मगसिर वदी तेरस को हुआ। उन्होंने मगसिर सुदी दशमी को गुफा में प्रवेशकर चैत्यालय के दर्शन किए और उसे बाहर लाए। जून 1971 में आचार्य देशभूषण जी महाराज तथा 1987 में आचार्य विमलसागर जी महाराज एवं 10 मई 1992 को आचार्य कुन्थुसागर महाराज ने इस मनोहारी चैत्यालय के दर्शन जनता को कराए। वर्ष 1994 ई. में यहाँ पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य पूज्य मुनि श्री सुधा सागर जी महाराज व क्षुल्लक गम्भीरसागर जी महाराज एवं धैर्यसागर जी महाराज के साथ सांगानेर पधारे। उनके सान्निध्य में 9 जून से 11 जून तक अखिल भारतवर्षीय विद्वत् संगोष्ठी हुई, जिसमें लगभग 40 विद्वान् पधारे और मुझे भी इसमें आलेख वाचन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दिनांक 12 जून को पूज्य मुनि श्री सुधासागर जी ने संघी जी के मन्दिर में स्थित