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चतुर्थ अध्याय
समस्तसूक्तव्यापी तथा सूक्तैकदेशंदृश्य चमत्कार तथा जयोद
समस्तसूक्तव्यापी चमत्कार की परिभाषा - समस्तसूक्तव्यापी वह चमत्कार है जिसमें पूरी सूक्ति अपने भाव लावण्य से चमत्कार उत्पन्न करे। जहाँ समस्त सूक्ति में चमत्कार होगा वहीं समस्त सूक्तव्यापी चमत्कार कहलायेगा।
जयोदय महाकाव्य में कुछ पद्य द्रष्टव्य है - वृद्धिंगतत्वात्पलितोज्ज्वलाद्य कीर्तिर्भुजङगस्य गृहं प्रसाद्य। हत्वाम्बरं नन्दनमेति चारमहो जरायां तु कुतोविचारः॥
इसमें स्वच्छन्द औरत बूढी हो से सफेद बालों वाली होकर भी कामी पुरुष के घर जाती रहती है और वस्त्ररहित हो अपने पुत्र तक को आलिंगन करती है। ठीक ही है, बुढापे में मनुष्य प्रायः विचाररहित हो ही जाता है। सिी तरह राजा जयकुमार की कीर्ति वृद्धि को प्राप्त होने के कारण पलित के समान सफेद होती हुई नीचे नागलोक में जाकर और उपर आकाश को पारकर इद्र के नन्दन वन तक पहुँच गयी। अर्थात् तीनों लोकों में फैल गयी।
यहाँ पूरा पद्य ही सुक्तिमय है इसलिए यह समस्तसूक्तव्यापी का सुन्दर उदाहरण है। समस्तसूक्तव्यापी का मजुल दृष्टान्त दृष्टव्य है -
स्वीकृते परमसारवत्तया जायते पुरनसारतारयात्। तक्रतो हि नवनीतमाप्य.ते तः पुनधृतकृते विधाप्यते॥
प्रारम्भ में परमसारवान होने से जो बात स्वीकर की जाती है वही कुछ समय बाद आसार हो जाती है। जैसे छाछ से जो मक्खन निकाला जाता है वही बाद में शीघ्र तपाकर घी बना लिया जाता है।
जिस प्रकार छाछ से घी बनता है उसी प्रकार सारवान् बात का महत्तव है।
1. जयोदयमहाकाव्य, (पूर्वार्द्ध) 1/36 2. वही, 2/14