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________________ -24 दरबारीलाल कोठिया, डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य, डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी, डॉ. गोकुल चन्द्र जैन, पं. दयाचन्द्र साहित्याचार्य, पं. जगन्मोहनलाल सिद्धान्त शास्त्री आदि-आदि । इन सभी मनीषियों, समीक्षकों और साहित्यकारों की विविध प्रवृत्तियों से बीसवीं शताब्दी में साहित्यक पृष्ठभूमि जैन दिशा में पल्लवित, पुष्पित और फलीभूत हुई, जिसकी सुरभि ने अनेक रचनाकारों को अपना रचनाकौशल प्रदर्शित करने का सुअवसर प्रदान किया । उपसंहार प्रस्तुत शोध विषय "संस्कृत काव्य के विकास में बीसवीं शताब्दी के जैन मनीषियों का योगदान" के प्रथम अध्याय में संस्कृत साहित्य का अन्त र्दशन विश्लेषित है । विवेच्य विषय को दो खण्डों में विभाजित किया है - खण्ड "अ" में संस्कृत साहित्य का आविर्भाव तथा विकास प्रतिपादित करते हुए इसके संक्षिप्त इतिवृत्त को रूपायित करने का विनम्र प्रयत्न इसलिए किया है - जिससे कि "संस्कृत" की प्राचीनतम विकास यात्रा से वर्तमान शताब्दी की निरन्तरता और समृद्धि का परिज्ञान हो सके । ऐसा करते समय संस्कृत साहित्य की सभी विधाओं और सांस्कृतिक धाराओं को दृष्टिपथ में रखा गया है । इस अध्याय के खण्ड "ब" में बीसवीं शताब्दी की साहित्यक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला गया है । वस्तुत: बीसवीं शताब्दी भारतीय समाज, संस्कृत और साहित्य के लिए एक संक्रमण काल के रूप में विद्यमान है । क्योंकि इस शताब्दी के पूर्वार्ध का जनमानस वैदेशिक शासन तंत्र से प्रभावित था । किन्तु संस्कृत की समृद्ध परम्परा में राष्ट्र, राष्ट्रीयता और पारतन्य उन्मूलन हेतु चिन्तापरता की सशक्त स्वर-लहरी भी गूञ्ज उठी थी । इस स्वर का पूरी शक्ति से दमन करने का पूरा प्रयास आङ्ग्ल-शासकों ने किया, किन्तु वह शान्त नहीं हो सकता। भारतीय समाज में अशिक्षा, अज्ञान और साधन-हीनता का प्रायः बाहुल्य था । देश में छोटीबड़ी अनेक रियासतें थीं । जिनके अधिकांश प्रशासक अंग्रेजों से भयभीत थे, किन्तु अनेक साहसी और शूरवीर राजा महाराजा तथा जन नायक राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, लोकमान्य बाल गङ्गाधर तिलक, आचार्य विनोबा भावे,सन्त गणेशप्रसाद वर्णी प्रभृति राष्ट्र उन्नायकों की दूरदर्शिता, जन कल्याणी दृष्टि और सर्वोपरि राष्ट्रहित की उदात्त भावना ने जनता-जनार्दन के मनोबल को समुन्नत बनाया । संस्कृत वाङ्मय के अध्ययन-अनुशीलन और प्रणयन की प्राच्य परम्परा इस शताब्दी के पूर्वार्द्ध में सुरक्षित और विकसित होती रही । बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध नयी उमङ्ग, नया उत्साह और नये आयाम ले करके प्रस्तुत हुआ । शताब्दी के इस भाग में प्राच्य जीवन-दर्शन के मूल्य सुरक्षित तो थे किन्तु भौतिक चकाचौंध और स्पष्ट शिक्षा नीति के प्रायः अभाव में संस्कृत को क्रमशः अनेक कठिनाईयों और अवमाननाओं का सामना करना पड़ा । शोधकर्ता को यह लिखने में तनिक भी सङ्कोच नहीं होता कि बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में संस्कृत की जितनी और जैसी दुरवस्था भारत राष्ट्र में है उतनी न तो इसके पहले यहाँ कभी रही है और न ही देश के बाहर अन्यत्र कहीं है पुनर्रपि संस्कृत की गतिशीलता और सञ्जीवनी-शक्ति ने त्याग, तपस्या, बलिदान, राष्ट्र-प्रेम, परोपकार को प्रोत्साहित करने तथा विदेशी संस्कृति के कुसंस्कारों को दूर करने का पूरा प्रयत्न किया । बीसवीं शताब्दी के जैन मनीषियों, (जिनमें जैन परम्परा में जन्मे तथा जैनेतर परम्परा में जन्म लेकर भी जैन चिन्तन पर लेखनी चलाने वाले भी सम्मिलित हैं) ने भी समान भाव
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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