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शौच, सत्य, संयम्, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य जैसे शुद्ध और सात्विक भावों को अत्यन्त सरसता, तुकान्त शब्दावली में पिरोकर कवि ने अपनी सूक्ष्म विश्लेषण शक्ति का परिचय दिया है।
शैली इस कृति में मनोवैज्ञानिक तथा प्रसाद गुण पूर्ण मार्मिक शैली का निष्पादन हुआ है। प्रसाद गुण सर्वत्र व्याप्त है -
विद्याविभवयुक्तोऽप्यहङ्कारी जनतेश्वरः ।
दूरादेव जनैस्त्याज्यो मणियुक्त फणीन्द्रवत् 102 अहङ्कारी राजा विद्यावान होने पर भी मणि युक्त भुजङ्ग के समान त्याज्य है ।
इसके साथ ही धर्मकुसुमोद्यानम् के कतिपय पद्यों में माधुर्य गुण की अभिव्यञ्जना हुई है । जिनमें कोमल कान्त पदावली और दृष्टान्त शैली ने जन-जन को आकृष्ट किया है -
हे हो मत्यज मूले सदा निणष्णान् भुजङ्ग मनुवारय ।
येन तव सुरभिसारं भोक्तुं शक्नोतु जगदेतत् ।03 . यहाँ पर चन्दन से उसमें लिपटे सो को दूर करने की कहा गया है, जिससे उसकी सुगन्ध का लाभ मानव मात्र प्राप्त कर सके ।
इसी प्रकार शैली में प्रसाद माधुर्य के साथ ही अत्यन्त रोचकता आ गयी है । अमिधा शब्दशक्ति भी उपस्थित हैं और अन्योक्तियों के प्रसङ्ग में दृष्टान्त शैली और लक्षणा-व्यञ्जना भी विद्यमान है जहाँ मुख्यार्थ गौण हो गया है और प्रतीयमान अर्थ ने चमत्कार या आकर्षण उत्पन्न किया है - अधोलिखित पद्य में शब्दार्थ गौण है किन्तु प्रतीयमान अर्थ प्रमुख हो गया है - रे खर्जुरा नोकह ? किमेवमुतङ्गमानमुदवहसि ।
छायापि तेन भोग्या पान्थानं किं फलैरेभिः ॥ इसमें धनी और घमण्डी मनुष्य का अर्थ प्रधान है जिसका आश्रय किसी को नहीं मिलता । इसी प्रकार वैदर्भी रीति भी मुख्य रूप से विद्यमान है । साहित्यिक एवं शैलीगत दृष्टि से अध्ययन करने के पश्चात् मैं कह सकता हूँ कि यह कृति जन सामान्य को प्रेरणास्पद एवं दिशानिर्दिष्ट करने में पूर्णतः सक्षम है । और जन सामान्य में आदर प्राप्त है । "पं. मूलचन्द्र शास्त्री की रचनाओं का साहित्यिक एवं शैलीगत अध्ययन" ।
रसाभिव्यक्ति रस काव्य की आत्मा माना गया है । इसीलिए किसी भी काव्यरचना का परीक्षण करने के लिए रस की अभिव्यक्ति जानना अत्यन्त आवश्यक है । वचनदूतम्-काव्य में रसोत्कर्ष परिलक्षित होता है । इसमें श्रृंगार और शान्तरस की प्रमुखता है । शृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों ही रूपों का इस ग्रन्थ में निदर्शन है । शृंगार रस का उदाहरण द्रष्टव्य है - नायिका राजुल गिरिनार पर्वत पर जाकर नेमि से कहती हैं -
"पूर्वसत्रा कतिपय भवे त्वं प्रभो । मामनैषीः, योऽन्तः स्नेहस्त्वयि मयिमिथोऽभूच्चिरं तं स्मर त्वम् । तस्य स्मृत्या मनसि मम सा सङ्गमाशाऽभवद् या, सद्यः पाति प्रणयिहृदयं विप्रयोगे रुणद्धि 104 .