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सज्ज्ञान चन्द्रिका आद्योपान्त प्रसाद गुण से सङ्गुम्फि है । किन्तु ग्रन्थ में कहीं-कहीं माधुर्य गुण की छटा भी परिलक्षित होती है । वेदर्भी रीति का सातिशय प्रयोग हुआ है ।
समीक्षा
प्रस्तुत ग्रन्थ का अनुशीलन करने पर हम कह सकते हैं - श्रद्धेय पण्डित जी ने सम्यग्ज्ञान जैसे सिद्धान्त के विषय को भी अपनी लेखनी से रोचक और सरस बना दिया है । उन्होंने इसमें धर्म, न्याय, साहित्य और व्याकरणादि विषयों का सामञ्जस्य किया है। प्रत्येक प्रकाश के प्रारम्भ के माङ्गलिक पद्यों की साहित्यिक छटा द्रष्टव्य है । जैसे
दीपः किं नैव दीपः किमिति स नियतं क्षुद्रवायो प्रणश्येत्, चन्द्रः किं नैव चन्द्रः किमिति स दिव से दीन दीनो विभाति । सूर्यः किं नास्ति सूर्यः किमिति सनियतं सायमस्तं प्रयाति, त्वेवं ध्वस्तोपमानं जगति विजयते केवलज्ञानमेतत् ॥1373 भावार्थ / सारांश
इस जगत में यह अनुपम केवल ज्ञान सबसे उत्कृष्ट है । यह अनुपम इसलिए है कि इसके लिए कोई एक भी उपमान नहीं है। उपमान तो वही हो सकता है जो उपमेय से उत्कृष्ट हो । यदि कहा यह जाय कि केवल ज्ञान अन्धकार को दूर करता है तो दीपक, चन्द्रमा, सूर्य भी तो अन्धकार मिटाते हैं - इस दृष्टि से इनको उपमान क्यों न माना जाय? यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि दीप, चन्द्र और सूर्य केवल बाह्य- अन्धकार को ही मिटा सकते हैं, जबकि केवल ज्ञान निविड आभ्यन्तर अज्ञान अंधकार का सर्वथा विनाश करता है, और एक बात यह भी है कि दीपक जरा सी हवा के झोंके से बुझ जाता है, चन्द्रमा दिन में अत्यन्त दीन प्रतीत होता. है और सूर्य प्रतिदिन शाम होते ही छिप जाता है, परन्तु केवल ज्ञान पर प्रचण्डतम वायु का भी प्रभाव नहीं पड़ सकता। दिन हो या रात, दोनों में ही यह समान रूप से प्रकाशित होता रहता है। सूर्य प्रतिदिन अस्त होता है, पर केवल ज्ञान कभी एक बार भी अस्त नहीं होता उत्पत्ति के बाद वह अनन्तकाल तक ज्यों का त्यों प्रकाशमान रहता है । अतः केवल ज्ञान सर्वथा अनुपम है । उसे मेरा शत शत नमन । यहाँ 'जयति" क्रिया से नमन व्यङ्ग्य है । इसी तरह अन्य पद्यों में भी साहित्यिक छटा विद्यमान है ।
सम्यक्चारित्र चिन्तामणि रसाभिव्यक्ति
" सम्यक् चरित्र" पर आधारित रचना के शीर्षक से ही प्रतिभासित हो जाता है कि यह रचना शान्त रस प्रधान होनी चाहिए और अनुशीलन करने के उपरान्त हमारी यह अवधारणा पुष्ट भी हो जाती है । दार्शनिक तत्वों के विवेचन में शान्त रस की आश्रय किया है ।
शान्त रस प्रधान इस कृति में अन्य रसों का प्रयोग, प्रसङ्गानुसार ही हुआ है ऐसा लगता है । शान्त रस में रसों को आक्रान्त कर लिया है। शान्त रस का एक उदाहरण प्रस्तुत है -
भगवन् । संन्यासदानेन मज्जन्मसफली कुरु । इत्थं प्रार्थयते साधु निर्यापक मुनीश्वरम् ॥ क्षपकस्य स्थितिं ज्ञात्वा दद्यान्निर्यापको मुनिः । स्वीकृतिं स्वस्य सन्यास विधि सम्पादनस्य वै ॥1374