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________________ 243 मोहादिभुक्तमनुजो लभते स्वधर्म, मूर्यो न सत्यपि सुवस्तुनि सौख्यदे हि । गङ्गावगाह न वशाद्वदतीति धर्मो-लोकस्य तस्य भवदा भुवि मूढता स्यात् ॥ मिथ्यात्व के कारण पञ्चेन्द्रिय विषयों में मग्न है और उनका त्याग न करते हुए सुखदायी सुमार्ग पर नहीं चलता, वह मूर्खतावश गङ्गादि नदियों में स्नान करने मात्र से अपने को पापमुक्त मान लेता है किन्तु उसे विचार करना चाहिये कि आत्मा के रागद्वेष तो इससे दूर नहीं होंगे। इस पद्य में म, स, ग, भ, आदि माधुर्य वर्गों का प्रयोग होने से माधुर्य गुण की उपस्थिति भाषा ___ आचार्य कुन्थुसागर जी निष्णात साहित्यकार और साधना पथ के सफल पथिक रहे। आपने सरल, सरस, प्राञ्जल शुद्ध संस्कृत भाषा के द्वारा जन-जन को प्रभावित किया। आपके प्रवचनों में सरस, सरल, संस्कृत को सुनकर श्रोता मुग्ध होते थे । आपके ग्रन्थों में भी यही भाषा प्रतिपालित है । प्रस्तुत श्रावकाचार "श्रावकधर्मप्रदीप" के गम्भीर और दार्शनिकता से परिपूर्ण विषय को कवि ने अपनी मौलिक सरस, सरल, सुबोध, लेखनी के द्वारा बोधगम्य बना दिया है । इस ग्रन्थ की विषय सामग्री कवि की वर्णनशक्ति से अभिभूत हुई है और उसमें सम्प्रेषणीयता भी आ गई है । आपकी हृदयग्राही भाषा में पदमैत्री, सुस्पष्ट शब्दावली, सुगम भावप्रणता/परिलक्षित होती है - आद्योपान्त सरल, सरस, शुद्ध साहित्यिक संस्कृत भाषा पल्लवित है। शैली शैली के माध्यम से कवि की विचारधारा स्पष्ट होती है । शैली के द्वारा ही काव्य के भावात्मक एवं कलात्मक पक्षों में समन्वय स्थापित होता है । आचार्य श्री की शैली वैदर्भी प्रधान है । इस शैली की विशेषता यह है कि इसमें लम्बे-लम्बे समासों का अभाव होता है और माधुर्य गुण की अभिव्यंजना होती है । गौड़ी और पांचाली शैलियों का प्रयोग अत्यल्प है। कवि ने वैदर्भी शैली के माध्यम से ही भावों को सुस्पष्ट किया है । इस शैली में कवि को प्रश्नोत्तर शैली अत्यधिक प्रिय है। इसमें प्रसंगानुकूल जिज्ञासु प्रश्न उपस्थित करता है । और तत्पश्चात् उसके प्रश्न का उत्तर पद्य में निबद्ध किया | जाता है । आचार्य श्री के अनेक काव्यों में प्रश्नोत्तर शैली बहुलता से अभिव्यंजित हुई हैएक उदाहरण द्रष्टव्य है - प्रश्न - मद्यपानाद् भवेत् किं मे वदात्मशान्तये प्रभो हे प्रभो मद्यपान से क्या हानि होगी, मेरी आत्मशान्ति के लिए समझाइये। उत्तर - चातुर्य प्रवरा बुद्धिर्लज्जापि मद्यपायिनाम् । कुलजातिपवित्रत्वं नश्यति धर्मभावना ॥ स्वैराचाराः स्पृहा दुष्टा वर्धन्ते भवदुःखदाः । त्यक्त्वेति मद्यपानादि पिबन्तु स्वात्मनो रसम् ।।57 अर्थात् - चतुर होने पर भी मद्यपान करने वाले की बुद्धि लज्जा, कुल, जाति, नष्ट हो जाती है उसकी पवित्रता समाप्त हो जाती है । धर्म के प्रतिभावना नष्ट होती है । सांसारिक -
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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