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4 1. संहिता या मन्त्रभाग - इसमें चारों वेदों का मन्त्रसमूह सम्मिलित है ।
(1) ऋग्वेद के मन्त्र 'ऋचा' कहलाते हैं । देवताओं की प्रार्थना, यज्ञ विज्ञान से सम्बन्धित तथा दार्शनिक विचारावली से सम्बद्ध मन्त्रों की ऋग्वेद में अधिकता है । ऋग्वेद में 10 मण्डल हैं तथा मन्त्रों की संख्या 10,552 है । ऋग्वेद की शाखल संहिता उपलब्ध है । इसके मन्त्रों का उच्चारण करने वाले को "होता" कहते हैं । यह विश्वसाहित्य का प्राचीन और विशालकाय ग्रन्थ है।
(2) यजुर्वेद की दो शाखाएँ हैं - कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद ।
कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाओं की चार संहिताएं (तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक, कपिष्ठल) मिलती हैं । शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाओं की दो संहिताएं - (वाजसनेयी एवं काठव संहिता) उपब्ध हैं । (इस वेद पर ऋग्वेद का प्रभाव है । यह कर्मकाण्ड से सम्बन्धित वेद है । यजुर्वेद के मन्त्रों का उच्चारण करने वाले को "अध्वर्यु" कहते हैं ।
(3) सामवेद में अत्यधिक मन्त्र ऋग्वेद के हैं । ऋग्वेद के मन्त्र विशिष्ट पद्धति से गाये जाने पर अपने नाम 'सामन्' को सार्थक करते हैं, इन मन्त्रों को मधुर स्वर से गाने वाले को "उद्गाता" कहा गया है । सामवेद की राणायनीन कौथुभीय, जैमिनीय शाखाएँ प्राप्त हैं । सामवेद 1875 मन्त्र हैं । इस वेद में उपासना की महत्ता प्रतिपादित हुई है ।
(4) अथर्ववेद में रक्षात्मक मन्त्रों की प्रचुरता है । इसमें रोगों की शान्ति, अन्न समृद्धि, अध्यात्मिक आदि विषयों से सम्बद्ध मन्त्र विद्यमान हैं । अथर्ववेद की शौनक एवं पैप्पलाद नामक ये दो संहिताएं ही उपलब्ध हैं । यज्ञ के अवसर पर इस वेद के मन्त्रों का उच्चारण करने वाले पुरोहित को "ब्रह्मा" कहा गया है । अथर्ववेद में 20 काण्ड, 34 पाठक 111 अनवाक 731 सूक्त तथा 5849 मन्त्र हैं।
2. ब्राह्मण ग्रन्थ - ब्राह्मण ग्रन्थों का सम्बन्ध यज्ञ से है । मन्त्रों की व्याख्या, कर्म काण्ड के प्रश्नों पर विचार करना ब्राह्मण ग्रन्थों का अभिप्रेत्य है । चारों वेदों के अलगअलग ब्राह्मण ग्रन्थ हैं - ऋग्वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ-ऐतरेय और कौषातकि । यजुर्वेद के तैत्तिरीय
और शतपथ ब्राह्मण, सामवेद के दाण्डय, षड्विंश, छांदोग्य, वंश । अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण। इनमें प्रार्थनाएँ, वैदिक ज्ञान, जन-कथाएँ, जादू मन्त्र, सृष्टि का स्वरूप आदि का विवेचन
3. आरण्यक ग्रन्थ - जो अरण्य में पढ़ा जाये या पढ़ाया जाये उसे "आरण्यक" कहते हैं । भावार्थ यह है कि वेदों की जो विधियाँ वानप्रस्थ को उपयोगी हैं तथा जो वन में रहकर स्वाध्याय, चिन्तन, जप-तप, आदि कार्यों में व्यस्त होते थे उनसे सम्बन्धित ग्रन्थों को आरण्यक कहा है । ये उपनिषदों के पूर्वरूप माने गये हैं । प्रत्येक वेद के पृथक्पृथक् आरण्यक ग्रन्थ हैं - ऐतरेयारण्यक,शांखायन आरण्यक ऋग्वेद के हैं । तैत्तिरीय, मैत्रायणीय आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद के हैं । तलवकार, छान्दोग्य आरण्यक सामवेद से सम्बद्ध हैं । अथर्ववेद से सम्बद्ध कोई आरण्यक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता ।
4. उपनिषद - उपनिषद् का शाब्दिक अर्थ है - "तत्त्वज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु के पास सविनय बैठना" । "अध्यात्म या ब्रह्म विद्या भी इसका अर्थ है । उपनिषदों की संख्या 108 मानी गयी है किन्तु मुख्य ग्यारह उपनिषदें ही उपलब्ध हैं - ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वेतर। इनकी प्रामाणिकता