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________________ 142. 194 4. नायक के लिये आवश्यक सद्गुणों का होना अपेक्षित है - देखिये-दशरुपक, द्वितीय प्रकाश आरभिक 2 श्लोक । नायक 4 प्रकार के होते हैं-धीरललित, धीरशान्त, धीरोदात्त और धीरोद्धत । वियादि सामान्य गुणों से युक्त धीरशान्त नायक.द्विज, विप्र, वणिक्, सचिवादि भी हो सकता है। 143. मम्मट शान्तरस का अस्तिव मानते हैं - निर्वेदस्थायी भावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रस:काव्यप्रकाश, चतुर्थ उल्लास कारिका 47 पृष्ठ 93 । 144. मङ्गलायतनम् - लेखक, बिहारी लाल शर्मा, प्रकाशक - वीर मंदिर सेवा ट्रस्ट, वाराणसी. प्रथम संस्करण 1975, प्रथम सोपान प्रथम परिच्छेद । 145. मङ्गलायतनम् - प्रथम सोपान पृष्ठ - 4 । 146. मङ्गलायतनम् - प्रथम सोपान पृष्ठ 20-21 । 147. मङ्गलायतनम् - द्वितीय सोपान, पृष्ठ 41 । 148. मङ्गलायतनम् - पञ्चम सोपान, प्रथम परिच्छेद, पृष्ठ 72 . छेदन-भेदनादि धर्मों से युक्त एवं रक्त-मांस-मज्जा से समन्वित स्थूल शरीर ही औदारिक 150. सर्वत्र विचरणशील रक्तादि रहित एवं विविध रूप धारण करने वाला शरीर वैक्रियिक कहा गया है। 151. स्वच्छ, स्फटिक के समान निर्मल एवं सूक्ष्म आहारक शरीर होता है । 152. तेजस पुद्गलों से निर्मित तथा उष्णताप्रद तैजस शरीर कहलाता है । 153. ज्ञानादि को आवृत करने वाले कर्मों के समुदाय का परिणाम कार्मण शरीर है। 154. गृहस्थों के लिये उपादेय इन व्रतों का स्वरूप देखिये, “मङ्गलायतनम्" पञ्चम सोपान पृष्ठ-79-80 155. अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच अणुव्रत ही महाव्रत कहलाते जीव और शरीर को एक मानना बहिरात्मा है । जीव और शरीर का भेद ज्ञान होना अन्तरात्मा है । 158. परमात्मा दो प्रकार की है - अर्हत और सिद्ध । इन श्रेणियों में आकर जीव भूख, प्यास, भय, रोगादि रहित शुद्ध-बुद्ध, घातिया कर्मों का नाशक होता है। सर्वत्र विचरणशील, एवं सम्यक्त्व गुणों से मण्डित रहता है । कर्मबन्धन से मुक्त आत्माएँ परमात्मा हैं । 159: सम्यग्दर्शन के सातों तत्त्वों का विस्तृत विश्लेषण पं. पन्नालाल जी द्वारा विरचित "सम्यक्त्व-चिन्तामणि" गन्ध में विद्यमान है । वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट वौराणसी से --. 1983 में प्रकाशित हुआ । 160. यह स्पर्श, रस, गन्ध एवं वर्ण सहित हैं । मूर्तिक है, पूरण गलन स्वभावाला है। इसके अनेकों भेद हैं। 161. विस्तृत विवेचन के लिए सम्यक्त्व-चिन्तामणि-पञ्चम मयूख द्रष्टव्य हैं । 162. सम्यक्त्व चिन्तामणि का षष्ठ मयूख परिलक्षित कीजिए । 163. विस्तृत विश्लेषण के लिए सम्यक्त्व-चिन्तामणि सप्तम मयूख परिलक्षित कीजिए। 164. वीरोदय, आचार्य ज्ञानसागर कृत, 128-129 तथा सर्ग में श्लोक नं.-20-21 । यह ग्रन्थ मुनि ज्ञासागर ग्रन्थमाला, ब्यावर (राजस्थान) से 1968 में प्रकाशित हुआ । 卐म卐
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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