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डॉ. साहब द्वारा रुपान्तरित संस्कृत पद्य - विसृष्ट-कजोत्थ-दलानुकारं, सुलोचनं चन्द्र-समान-तुण्डम् ।
घ्राणाजितं चम्पकपुष्पशोभं, तं गोम्मटेशं प्रणमामि नित्यम् ॥4
इनके अतिरिक्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपके द्वारा प्रणीत अनेक शोध-आलेख संस्कृत में भी प्रकाशित है, जिनसे लेखक की प्रौढ़ विद्वत्ता, प्राञ्जल भाषा और अभिराम शैली-प्रस्तुति का निदर्शन होता है ।
पं. भुवनेन्द्र कुमार शास्त्री, खरई परिचय - पं. भुवनेन्द्रकुमार जी का जन्म 19 मार्च सन् 1914 में मध्यप्रदेश के सागर जिले में स्थित मालथौंन नामक गाँव में हुआ । आपके पिता का नाम श्री भुजबल प्रसाद जी एवं माता का नाम श्रीमती राधाबाई था। आपकी शिक्षा-दीक्षा स्थानीय विद्यालय से
से प्रारम्भ हुई । गँव में विशारद प्रथम खण्ड तक की शिक्षा लेने के बाद आप श्री गो. दि. जैन सिद्धान्त विद्यालय, मोरेना चले गये । यहाँ से आपने शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की । इसके बाद अध्यापन कार्य करने लगे । आपका विवाह 1935 ई. में सरस्वती बाई से हुआ किन्तु 5 वर्ष बाद ही उनका स्वर्गवास हो गया । तत्पश्चात् 1940 में आपका दूसरा विवाह श्यामबाई के साथ सम्पन्न हुआ ।
आपने अपने अर्थोपार्जन का आधार अध्यापन कार्य को ही बनाया। अपने जीवन की अनेकानेक जटिल परिस्थितियों और समस्याओं का मुकाबला हँस-हँसकर करने वाले पं. भुवनेन्द्रकुमार जी आजकल श्री पार्श्वनाथ जैन गुरुकुल, खुरई (सागर) में अध्यापन कार्य कर रहे हैं। पं. भुवनेन्द्र कुमार जी समाज के कर्मठ कार्यकर्ता, उच्चकोटि के वक्ता, भावुक कवि और गद्य लेखन में निष्णात मनीषी हैं । आपके अन्तःकरण से उद्भूत सैकड़ों गीत और कविताएँ जन-जन के मानस पटल पर अपना अमिट प्रभाव छोड़ती हैं । "श्री 108 आचार्य विद्यासागर स्तवनम्"-आपकी प्रसिद्ध रचना है । श्री १०८ "आचार्य विद्यासागर स्तवनम्'१९०५ :
परम श्रद्धेय एवं जैन धर्म के मर्मज्ञ मुनि विद्यासागर जी का चारित्रिक विश्लेषण पं. भुवनेन्द्र कुमार जैन, (खुरई) ने प्रस्तुत किया है । यह स्तोत्र पाँच पद्यों में है । आचार्य विद्यासागर अनेक ग्रन्थों के प्रणेता, दार्शनिक, विचारक, युग द्रष्टा एवं महान मुनि के रूप में विख्यात हैं । वे निरन्तर काव्यसाधना में दत्तचित्त हैं, उनके द्वारा विरचित हिन्दी एवं संस्कृत में अनेक ग्रन्थों के रसास्वादन का लाभ समाज ने किया है । पं. भुवनेन्द्र कुमार जैन ने उन्हें महावीर का सच्चा अनुयायी और निर्मल ज्ञान का प्रचारक निरूपित किया है । धर्म के द्वारा मुक्तिमार्ग को प्रशस्त करने वाले त्याग की प्रतिकृति आचार्य विद्यासागर में प्रत्येक पद्य की अन्तिम पंक्ति में स्तुतिकार ने अपनी हार्दिक श्रद्धा इन शब्दों में व्यक्त की है -
“विद्यासागरमत्र पूतचरणं वन्दामहे सन्ततम् ।1०० · छन्दकार स्तुति करता है कि कृपालु आचार्य श्री ने यहाँ आकर धर्मोपदेश के द्वारा समस्त पुरवासियों को धार्मिक प्रेरणा प्रदत्त की । आपका दर्शन सुपुण्य तथा सुफल प्रदान करता है । हे आचार्य तपस्या से पुनीत आपकी प्रभा सद्गति और सर्वाशा को विकसित करती है तथा मोह के अंधकार को नष्ट करती है । हे ज्ञानेश, आपके अपरिमित गुणों का