________________
xii
विकसित होकर प्रस्फुटित होता है और सम्प्रेणषीयता केन्द्रीय प्रभाव को विकीर्ण कर देती है । इस प्रकार अनुभूति द्वारा रस का संचार होने से काव्यानन्द प्राप्त होता है और अंतिम साध्य रूप जीवन आदर्श तक पाठक पहुँचने का प्रयास करता है । इसलिए कालिदास आदि का रचना तंत्र वृत्ताकार है । पर जैन संस्कृत कवियों का रचना तंत्र हाथी दांत के नुकीले शंकु के समान मसृण और ठोस होता है । चरित्र, संवेदन और घटनाएँ वृत्त के रूप में संगठित होकर भी सूची रूप को धारण कर लेती हैं तथा रसानुभूति कराती हुई तीर की तरह पाठक को अंतिम लक्ष्य पर पहुँचा देती हैं ।
(14) जैन काव्यों में इन्द्रियों के विषयों पर सत्ता रहने पर भी आध्यात्मिक अनुभव की संभावनाएँ अधिकाधिक रूप में वर्तमान रहती हैं । इन्द्रियों के माध्यम से सांसारिक रूपों की अभिज्ञता के साथ काव्य प्रक्रिया द्वारा मोक्ष तत्त्व की अनुभूति भी विश्लेषित की जाती है । भौतिक ऐश्वर्य, सौन्दर्य परक अभिरुचियाँ शिष्ट एवं परिष्कृत संस्कृति के विश्लेषण के साथ आत्मोत्थान की भूमिकाएँ भी वर्णित रहती हैं । "परिशिष्ट प्रथम" ___. विवेच्य शोध विषय के निमित्त प्रयुक्त सन्दर्भ-ग्रन्थों की सूची समाविष्ट है ।
निर्दिष्ट विषय पर सम्पूर्ण बीसवीं शताब्दी को और बीसवीं शताब्दी के रचना संसार को समक्ष रखकर मैंने प्रथम बार यह महत्त्वपूर्ण अनुसन्धान कार्य संपन्न किया है । इसके पूर्व इस शताब्दी के कुछ एक ग्रन्थों या रचनाकारों पर अध्ययन-अनुशीलन भले ही हुआ हो किन्तु ऐसी समग्रता इसके पूर्व अन्यत्र नहीं मिलती । जैन वाङ्मय अखिल भारतीय वाङ्मय का एक समृद्ध और सुसंस्कृत भाण्डागार है । एक तो आधुनिक युगीन संस्कृत साहित्य पर ही अध्ययन-अनुशीलन नगण्य जैसा है फिर जैन काव्य-साहित्य के अध्ययन अनुशीलन की स्थिति और भी चिन्तनीय ही कही जायेगी । मुझे यह कार्य सम्पन्न करते.समय अनेक प्रकार की असुविधाओं के झंझावातों में यात्रा करना पड़ी है । यह कार्य संपन्न करते समय मैंने अत्यन्त मनोयोग पूर्वक सभी प्रतिनिधि, रचनाकारों और उनकी रचनाओं का आद्योपांत अध्ययन किया है । उनके प्रतिपाद्य को हृदयंगम किया है और प्राप्त निष्कर्षों को शोध निकष पर तराशा है । तराशने में जैन रचनाकारों और उनकी रचनाओं की आभा से सम्पूर्ण भारतीय वाङमय संवासित हो उठा है । इस शताब्दी के इतने समद्ध रचनाकारों और उनकी रचनाओं से साहित्य-जगत् मेरे इस शोध प्रबन्ध के द्वारा प्रथम बार सुपरिचित हो सकेगा । इस शताब्दी के जैन-रचनाकारों में केवल जन्मना जैनावलम्बी ही नहीं हैं प्रत्युत जैनेतर वर्गों में उत्पन्न होकर जैन विषय पर रचना करने वाले बहुत से जैनेतर मनीषी भी सम्मिलित हैं । इस शोध प्रबन्ध के पाठक देखेंगे कि जैन काव्य की समृद्धि में केवल गृहस्थ-मनीषियों का योगदान नहीं है प्रत्युत निर्ग्रन्थ आचार्यों, मुनियों और साध्विय का प्रशस्त. योगदान भी समाविष्ट है।
ये रचनाएँ काव्य-शास्त्र के निकष पर प्रथम बार ही तराशी गयी है और इन्हें तराशने से यह स्पष्ट हुआ है कि भावपक्ष तथा कलापक्ष की दृष्टि से महाकवि कालिदास, अश्वघोष, शूद्रक, भारवि, माघ, भवभूति, राजशेखर, श्रीहर्ष सदृश प्रतिभायें जैन-जगत् और जैन काव्य के क्षेत्र में बीसवीं शती में भी विद्यमान हैं । मेरा यह अध्ययन सम्पूर्ण संस्कृत वाङ्मय के परिप्रेक्ष्य में अब तक उपेक्षित/अज्ञात/या कम पढ़े गये संस्कृत काव्यों को जो जैन विषयों पर प्रणीत है - को विश्लेषित करने का विनम्र प्रयत्न है । मुझे यह विश्वास है कि मेरे इस अध्ययन से भगवती सरस्वती देवी और अमर भारती के अनेक देदीप्यमान रत्नों की