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से अधिक सर्गों में कई जन्मों की परिस्थितियों और वातावरणों के बीच जीवन की विभिन्न घटनाएँ अंकित होती हैं । काव्यों के उत्तरार्द्ध में घटनाएँ इतनी जल्दी आगे बढ़ती हैं - जिससे आख्यान में क्रमशः क्षीणता आती-जाती है । पूर्वार्ध में पाठक को काव्यानन्द प्राप्त होता है जबकि उत्तरार्द्ध में आध्यात्मिकता और सदाचार ही उसे प्राप्त होते हैं । इसका कारण यह भी हो सकता है कि शान्त रस प्रधान काव्यों में निर्वेद की स्थिति का उत्तरोत्तर विकास होने से अंतिम उपलब्धि अध्यात्म तत्त्व के रूप में ही संभव होती है । चूंकि संस्कृत जैन काव्यों की कथावस्तु अनेक जन्मों से सम्बन्धित होती है अतः चरित्र का विकास अनुप्रस्थ (हारी - जेन्टल ) रूप में ही घटित हुआ है। जीवन के विभिन्न पक्ष, विभिन्न जन्मों की विविध घटनाओं से समाहित हैं ।
( 8 ) संस्कृत जैन काव्यों में आत्मा की अमरता और जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों की अनिवार्यता दिखलाने के लिए पूर्व जन्म के आख्यानों का संयोजन किया गया है। प्रसंगवश चार्वाक आदि नास्तिकवादों का निरसन कर इनमें आत्मा की अमरता और कर्म संस्कार की विशेषता का विवेचन किया गया है। पूर्व जन्म के सभी आख्यान नायकों के जीवन में कलात्मक शैली में गुम्फित हुए हैं । दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रतिपादन से यत्र-तत्र काव्य रस न्यूनता आ गई है । पर कवियों ने आख्यानों को सरस बनाकर इस न्यूनता को संभाल भी लिया है ।
(9) संस्कृत के जैन कवियों की रचनाएँ श्रमण संस्कृति के प्रमुख आदर्श - स्याद्वाद विचार समन्वय और अहिंसा के पाथेय को अपना सम्बल बनाते हैं । इन काव्यों का अंतिम लक्ष्य प्रायः मोक्ष-प्राप्ति है । इसलिए आत्मा के उत्थान और चरित्र - विकास की विभिन्न कार्य- भूमिकाएँ स्पष्ट होती हैं ।
(10) व्यक्तियों की पूर्ण- समानता का आदर्श निरुपित करने और मनुष्य- मनुष्य के बीच जातिगत भेद को दूर करने के लिए काव्य के रसभाव मिश्रित परिप्रेक्ष्य में कर्मकाण्ड, पुरोहितवाद एवं कर्तृत्ववाद का निरसन किया गया है। वैभव के मद में निमग्न अशांत संसार को वास्तविक शान्ति प्राप्त करने का उपचार परिग्रह त्याग एवं इच्छा नियंत्रण निरूपित करके काव्य शैली में प्रतिपादन किया है ।
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(11) मानव सन्मार्ग से भटक न जाये, इसलिए मिथ्यात्व का विश्लेषण करके सदाचार परक तत्त्वों का वर्णन करना भी संस्कृत जैन कवियों का अभीष्ट है । यह सब उन्होंने काव्य की मधुर शैली में ही प्रस्तुत किया है ।
(12) जैन संस्कृत कवियों की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि वे किसी भी नगर का वर्णन करते समय उसके द्वीप, क्षेत्र एवं देश आदि का निर्देश अवश्य करेंगे।
(13) कलापक्ष और भावपक्ष में जैन काव्य और अन्य संस्कृत काव्यों के रचनातंत्र में कोई विशेष अंतर नहीं है पर कुछ ऐसी बातें भी हैं जिनके कारण अंतर माना जा सकता है । काव्य का लक्ष्य केवल मनोरंजन कराना ही नहीं है प्रत्युत किसी आदर्श को प्राप्त कराना'
। जीवन का यह आदर्श ही काव्य का अंतिम लक्ष्य होता है । इस अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति काव्य में जिस प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न होती है । वह प्रक्रिया ही काव्य की "टेकनीक " है। श्री कालिदास, भारवि, माघ आदि संस्कृत के कवियों की रचनाओं में चारों ओर से घटना, चरित्र और संवेदन संगठित होते हैं तथा यह संगठन वृत्ताकार पुष्प की तरह पूर्ण