SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के चार पुत्रों के नाम हैं । इसी प्रकार कवि के चारों पुत्रियों के नाम है - शान्ति, सुशीला, सविता और सरोज । कवि ने अपने एक पौत्र के नाम का भी उल्लेख किया है, जिसका नाम ननकू बताया गया है । चारों पुत्रों के नामों का उल्लेख आदि के चार स्तबकों के अन्त में, पुत्रियों के नाम पाँचवें स्तबक के न्त में और पौत्रं ननकू का नाम छठे स्तवक के अन्तिम श्लोक में तथा राजेश, सञ्जय, अज्जू, सोमू, मोनू, और शैलू पौत्रों के नाम आठवें स्तबक के अंत में आये हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ का सृजन श्रीमान् सटोलेलाल जी के सुपुत्र और सल्लो माता की कुंक्षि से मालथौन ग्राम में जन्मे श्री मूलचन्द्र जी द्वारा किये जाने का उल्लेख भी कवि ने स्वयं प्रस्तुत कृति में किया है - श्री सटोले सुतेनेयं सल्लोमात्रुद्भवेन च ।। रचिता . मूलचन्द्रेण मालथोनाप्तजन्मना ।।7-18॥ कवि ने प्रस्तुत रचना. श्री अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी में लिखकर पूर्ण की थी। | इस संबंध में कवि का निम्न श्लोक द्रष्टव्य है - श्री मत्यतिशयक्षेत्रे महावीरे नामना जगद्विदिते । पाण्डित्यपदं वहता चम्पूकाव्य मया रचितम् ।।पू.-220॥ कवि की अन्य प्रकाशित मौलिक-संस्कृत रचनाओं में "लोकाशाह" एक महाकाव्य है । दो भागों में प्रकाशित 'वचनदूतम्' कवि की दूसरी रचना है । टीकाएँ लिखने में भी कवि सिद्धहस्त थे। उनकी प्रकाशित संस्कृत टीकाओं में हरिभद्रसूरि कृत "षोडशक प्रकरण की 15,000 श्लोक प्रमाण तथा विजयहर्ष सूरि प्रबन्ध की 450 श्लोक प्रमाण टीकाएँ उल्लेखनीय हैं । अङ्गों और उपाङ्गों पर भी की गयी हिन्दी टीकाएँ भी प्रकाशित हो चुकी हैं । आप्तमीमांसा की हिन्दी टीका पर कवि को न्याय वाचस्पति की उपाधि से अलङ्कत किया गया था। युक्त्यनुशासन का हिन्दी अनुवाद साहित्य जगत में कवि की अनूठी देन है । इन्होंने औपपातिक सूत्र, राजप्रश्नीयसूत्र, जीवाजीवाभिगम सूत्र, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, नन्दीसूत्र, उत्तराध्ययन का हिन्दी अनुवाद करके ख्याति प्राप्त की थी। जैन धर्म का तुलनात्मक अध्ययन और सुरेन्द्र कीर्ति भट्टारककृत चतुर्विंशति सन्धान 13 अर्थ का अनुवाद ये दो रचनाएँ अप्रकाशित हैं। चतुर्विंशति सन्धान का अनुवाद अपने द्वारा किये जाने का उल्लेख कवि ने प्रस्तुत रचना में भी किया है - श्री मत्सुरेन्द्र यशसा दृब्धं काव्यं सुविज्ञविज्ञेयम् चतुर्विंशतिसंधानमनूदितं तन्मया हिन्द्याम् ॥8॥ ... यह अनुवाद कवि के जीवन काल में ही हो गया था। उन्होंने बहुत खोज की किन्तु वे सफल नहीं हुए । प्रस्तुत कृति में इस अनुवाद का उल्लेख कर देना सम्भवतः कवि ने इसलिए आवश्यक समझा था अन्यथा वे अपने समय में अप्रकाशित अपनी रचना 'अभिनवस्तोत्र" का भी अवश्य उल्लेख करते । इस रचना का प्रणयन कवि ने 78 वर्ष की उम्र में किया था । कवि ने इस सम्बन्ध में प्रस्तुत गंन्थ में लिखा है - . __ अशीति वर्षायुषि सांस्थितस्य द्वि वर्ष हीनेऽपि च शेमुषीयम्। .. पूर्वीय संस्कार वशादहीना करोति काव्यं ननु नव्यमेतत् ।।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy