SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 132 उद्देशय - प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना का लक्ष्य मानव हृदय में व्याप्त अज्ञान को नष्ट करना तथा उसे अपने कर्त्तव्य एवं आत्मा का दर्शन कराना भी है। जिससे सामाजिक दुष्प्रवृत्तियाँ नष्ट हो सके। "अनुशीलन" धर्म का लक्षण - जो प्राणियों को संसार के दुःखों से वचित कर मोक्ष प्रदान करता है; वही धर्म है । इसमें क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य, ब्रह्मचर्य को धर्म के रूप में स्वीकार करके प्रतिष्ठित किया है । क्रोध की परिस्थितियां रहने पर भी क्रोध उत्पन्न न होना या क्रोध का अभाव क्षमा है । इसमें अपरिमित शक्ति होती है मनुष्य का. नम्र स्वभाव मार्दव कहलाता है । इससे अलङ्कत मानव सर्वत्र सम्मानित होता है । मनुष्य के हृदय की सरलता 'आर्जव धर्म' है । संसार से मुक्ति पाने के लिए आर्जव का होना अनिवार्य है । हृदय की पवित्रता शौच है- 'शुचेर्भाव: शौचः । 36 इससे मनुष्य अपने लक्ष्य की प्राप्ति करता है । संतोष का आश्रय सुख का मूल है, सन्तोषी के समीप विपत्ति नहीं आ सकती। . अयमेव शौच धर्मो स्वात्माश्रयं संददाति लोकेभ्यः ।। सत्यधर्म की महत्ता विश्रुत है - सत्य भाषण से समस्त सन्ताप और पाप नष्ट हो जाते हैं । संयम धर्म का परिचय भी द्रष्टव्य है - मन एवं इन्द्रियों की प्रवृत्ति को रोकना "संयम" है । संयम से मानव मात्र की रक्षा की जाती है । "इच्छानां विनिरोधस्तपः" अर्थात् इच्छाओं को रोकना तप है । तप से आत्मा पवित्र होती है । तपस्या से कुछ भी असम्भव नहीं होता। इसके पश्चात् त्याग धर्म का निरुपण किया गया है - कि विश्वकल्याण (मानव कल्याण) के लिए भक्ति पूर्वक पात्र दान “त्याग" है - आहार, अभय, ज्ञान, औषधि ये त्याग के भेद हैं । इसके साथ ही त्याग की सर्वश्रेष्ठता भी निरूपित की है। "आििकञ्चन्य" का अर्थ है - जिसके पास कुछ नहीं हैं । यह धर्म मुनियों को प्रिय होता है, और वे बाह्य और अन्तरङ्ग दोनों ही परिग्रहों से दूर रहते हैं । ब्रह्मचर्य धर्म का विवेचन भी इस प्रकार हुआ है - दूरादेव समुज्झित्य नारी नरकपद्धतिम्। ब्रह्मणि चर्यते यत्तद् ब्रह्मचर्य समुच्यते ।" अत: स्त्री शरीर का पति त्याग कर ब्रह्म में (आत्मा) विचरण करना "ब्रह्मचर्य" है। स्त्री शरीर में लिप्त मनुष्य रोग एवं अपमान के शिकार होते हैं । इसलिए स्वास्थ्य, यश एवं प्रतिष्ठा आदि की प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य धारण करना प्रत्येक मानव का कर्त्तव्य है । सामयिक पाठ४० आकार - "सामयिक पाठ" तिहेत्तर श्लोकों में निबद्ध लघुकाव्य रचना है । नामकरण - मानव जीवन के समस्त विरोधों का शमन करके सुख-शान्ति प्रदान करने के कारण इस कृति का नामकरण “सामयिक पाठ" सर्वथा युक्तिसङ्गत है । | रचनाकार का उद्देश्य - सामायिक के काल में, व्यक्ति के द्वारा किये पाप क्रिया कलापों की आलोचना ही "निर्जरा" का कारण है । इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर इस कृति मकाः प्रणयन किया गया है । अनुशीलन - हे जिनेन्द्र देव, मन, वचन एवं काया से मेरे द्वारा किये पापों एवं क्रोध, मान, मद माया, मत्सर, लोभ, मोह के वशीभूत किये गये कर्मों के फल को शान्त कीजिए।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy