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समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय, चारित्र और तप के माध्यम से संवर की सिद्धि होती
है
" गुप्ति समितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयैश्च चारित्रैः । तपसाऽपि संवरोऽसौ भवतीति निरूपितं सद्भिः " ॥29
मन, वचन, काय योगों का सम्यक् तरीके से निग्रह करना गुप्ति है - मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, गुप्त ये उसके भेद हैं। समिति सांसारिक प्राणी की प्रवृत्ति का प्रतीक है - चलना, बोलना, खाना, रखना, उठाना तथा मलमूत्र छोड़ना । इन प्रवृत्तियों को प्रमादरहित होकर कराना ही समितियों का लक्ष्य है। ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण और उत्सर्ग यही 5 समितियाँ हैं । इनका विस्तृत निरूपण ग्रन्थकार ने किया है। संवर के कारणों में धर्म का भी अमूल्य योगदान होता है । इसी सन्दर्भ में धर्म के दस अङ्गों का विश्लेषण हुआ है - मार्दवधर्म, आर्जवधर्म, शौचधर्म, सत्यधर्म, संयमधर्म, तपधर्म, त्यागधर्म, आकिञ्चन धर्म, ब्रह्मचर्य धर्म । अनुप्रेक्षाओं के माध्यम से भी संवर की प्राप्ति संभव है अनित्यभावना, अशरणभावना, संसारभावना, एकत्व भावना, अन्यत्वभावना, अशुचिभावना, आस्रवभावना, संवरभावना, निर्जराभावना, लोकभावना, बोधिदुर्लभभावना और धर्मभावना ये बारह अनुप्रेक्षाएँ मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती हैं। संवर के पथ में दृढ़ता और कर्मों के निर्जरा के लिए बाईस परीषह सहना आवश्यक है, ये संवर के साधक हैं- क्षुधापरिषहजय, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, शय्या, आक्रोश, बन्ध, याचना, अलाभ, रोग, तृणादिस्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान, अदर्शन यही बाईस परिषहजय कहे गये हैं। संवर वह तत्त्व है जो मुक्ति को अलंकृत करता है । संवर से रहित व्यक्ति चारों गतियों में भटकता ही रहता है ।
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नवम मयूख
प्रस्तुत मयूख में निर्जरातत्त्व का प्रतिपादन है । तपों की व्याख्या के परिप्रेक्ष्य में छह बाह्य तपों और छह अन्तरङ्ग तपों का स्वरूपादि विश्लेषित हुआ है । उपवास, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, कायक्लेश, रसपरित्याग और विविक्तशययासन ये छह बाह्यतप हैं, जो अष्ट कर्मों को नष्ट करते हैं। मुनि लोग इन तपों का सेवन करते हैं। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह अन्तरङ्ग तप हैं । इनमें से ध्यान के अनेक उपभेद हैं । ग्रन्थकार ने उपरोक्त विविध प्रकार के तपों के संक्षिप्त लक्षण भी समझाये हैं । निर्जरातत्त्व का समीचीन निरूपण करते हुए नवम मयूख के अन्त में संसार सागर से पार होने के लिए तप की ही आराधना करके की प्रेरणा दी गई है ।
दशम मयूख
सम्यकत्व चिन्तामणि के इस अन्तिम मयूख में सम्यग्दर्शन के आधारभूत "मोक्ष" नामक तत्त्व को प्रतिपादित किया गया है । देव, शास्त्र गुरु का भी महत्त्वपूर्ण विवेचन भी निबद्ध है । मोक्ष के स्वरूप का स्पष्टीकरण अधोलिखित पद्य से होता है।
"सर्वकर्मनिचयस्य योगिना मात्मनः किल विमोक्षणं तु यत् । तद्धि सर्वसुखदं प्रकीर्त्यते, मोक्षतत्त्वमहि साधुसंचयै : ॥ "
अर्थात् योगियों की आत्मा से कर्मों का छूटना ही इस संसार में साधुओं ने शाश्वत सुखदायी मोक्ष कहा है । भावार्थ यह है कि संवर और निर्जरा के द्वारा समस्त कर्मों हमेशां के लिए क्षय हो जाना मोक्ष है । यह मुनियों को ही प्राप्य है । यह मोक्ष केवलज्ञान पूर्वक