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मिलता है । नाम कर्म की उत्तर प्रकृतियों गोत्र एवं अन्तराय की उत्तरप्रकृतियों, भेदाभेद, विवक्षा में बन्धयोग्य प्रकृतियों की संख्या, गुणस्थानों में बन्ध का विशेष वर्णन एवं मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में अबन्धयोग्य प्रकृतियों का विश्लेषण, इन सभी को प्रकृति बन्ध में समाविष्ट किया गया है । स्थितिबंध के संदर्भ में ज्ञानावरणादि मूल प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति, उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का उल्लेख करते हैं । उत्कृष्ट स्थिति बंध का कारण एवं उसकी विशेषता पर भी लेखक ने गहरा प्रभाव अङ्कित किया है । जघन्य स्थितिबन्ध के स्वामी अबाधा का लक्षण एवं उसकी व्यवस्था आदि का सटीक विवेचन उपस्थित हुआ है । चतुर्विध बन्ध के सम्बन्ध में अपना दृष्टिकोण प्रतिपादित करते हैं ।
योगात्पुंसां
प्रकृतिप्रदेशबन्धौ प्रजायेते 1 भवतः स्थितिरनुभागः कषायहेतोः सदा बन्धौ ॥28
भावार्थ यह है कि जीवों प्रकृति और प्रदेश बन्ध योगों के निमित्त से होते हैं तथा स्थिति और अनुभाग बन्ध कषाय के निमित्त से होते हैं । अतः स्थिति और अनुभाग बन्ध जीवों के लिए अनर्थ के कारण है किन्तु प्रकृति और प्रदेश बन्ध आत्मोन्मति के प्रतीक हैं।
अनुभाग बन्ध का स्वरूप बताते हैं कि कर्मों के समूह में जो विविध प्रकार की फलदायिनी शक्ति है, वही अनुभाग बन्ध है । उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध की सामग्री, स्वामी तथा जघन्य अनुभाग बन्ध के स्वामी का निरूपण किया गया है । दृष्टान्तों के द्वारा घातिया और अघातिया कर्मों की अनुभाग शक्ति का वर्णन भी हुआ है । अघाती - कर्मों के अन्तर्गत पाप- प्रकृतियाँ, पुण्यप्रकृतियाँ भी विश्लेषित हुई हैं । इसी परिप्रेक्ष्य में 20 सर्वघाती, 62 पुद्गल विपाकी, 26 देशघाती, 4 क्षेत्र विपाकी, 4 भव विपाकी एवं 68 जीव विपाकी प्रकृतियों का नामोल्लेख हुआ है।
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प्रदेश बन्ध का लक्षण करते हुए कहते हैं कि आत्मा योगादि के कारण सब ओर मे समस्त प्रदेशों के द्वारा आत्म प्रदेशों में प्रविष्ट होता है और कर्मरूप कार्माण वर्गणावत् पुद्गल को जो बांधता है, वही प्रदेश बन्ध है। मूलोत्तर प्रकृतियों में समयप्रबद्ध का बंटवारा भी किया जाता है । उत्कृष्टप्रदेश बन्ध की सामग्री और स्वामी का विश्लेषण करते हैं कि जो उत्कृष्ट योग वाला हो, संज्ञी, पर्याप्तक, अल्पप्रकृतिबन्ध हो, वही मनुष्य इसे धारण कर सकता है, इससे भिन्न व्यक्ति जघन्य प्रदेश बन्ध का धारक होता है । जघन्यप्रदेश बन्ध के स्वामी पर भी संक्षिप्त प्रकाश डालते हैं । बन्ध तत्त्व पर अपना वक्तव्य समाप्त करते हुए लेखक आशय प्रकट करता है कि बन्ध ही दुःख का कारण है । यदि भवभ्रमण से बचना है तो सर्वप्रथम आत्मस्वभाव की श्रद्धा करना चाहिये और उस (आत्म स्वभाव) को पाने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिये । यह पुरुषार्थ ही सम्यक्चारित्र कहा गया है।
अष्टम मयूख
प्रस्तुत मयूख में संवर तत्त्व का विस्तृत विवेचन है । " आस्रवस्य निरोधो यः संवरः सोऽभिधीयते । अर्थात् नये कर्मों के आगमन (आस्त्रव) का रुक जाना ही संवर कहलाता है । उनमें भी पुद्गल से सम्बन्धित ज्ञानवरणादि कर्मों का रुकना द्रव्यसंवर है तथा उन कर्मों के कारणभूत भावनाओं का जो सद्भाव है वह, भाव संवर है ।
संवर का माहात्म्य अद्वितीय है । संवर ही लोभ में उत्कृष्ट हित करने वाला है क्योंकि उसके बिना निर्जरा करने में समर्थ नहीं है । संवर के कारणों पर दृष्टिपात करते हैं- "गुप्ति,
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